Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 277
________________ जिनमतस्योन्नतौ तत्परमिति जिनमतोन्नतितत्परं तच्च तज्जीवनं चेति तथाभूतं जिनमतप्रभावनाकरजीवनम्। विमलदर्शनवत् निर्दोषसम्यग्दर्शनसहितं नदजीवनं महानदीजलमिव प्रगतिशीलं भवतु। एषोऽयम् अर्पितपरिजयो विवक्षितादर्शनपरिषहजयो वास्तु भवतु वा। एतत्कारणं प्रदर्शयति यद् यस्मात् एष परिषहजयग्रन्थः समर्पितः। मया साधुभ्य एष परिषहजयग्रन्थः समर्पितस्तेन तेषां जीवनं जिनमतोन्नतितत्परं निर्मलसम्यग्दर्शनसहितं महानदीजलमिव प्रगतिशीलं च भवतु अदर्शनपरिषहजयो वा निश्चयेन भवतु।।९५।। अर्थ - यतश्च साधुओं के लिये यह परिषहजयग्रन्थ समर्पित है अत: इसके फलस्वरूप उनका जीवन जिनधर्म की उन्नति में तत्पर रहे, निर्मल सम्यग्दर्शन से सहित हो महानदी के जल के समान प्रगतिशील हो और निश्चय से अर्पित-विवक्षित अदर्शनपरिषह पर विजय प्राप्त करने वाला हो ।।९५।।। [९६] सपदि संपदि संविदि वा सुखी, विपदि नो भुवि योऽविदि वाऽसुखी। स हि परीषहकान् श्रयितुं क्षमः, शुचितपश्च विधातुमिह क्षमः ।। . सपदीति - परिषहान् सोढुं कः समर्थ: ? इति समाधातुमाहः - यो मुनि: भुवि पृथिव्यां संपदि संपत्तौ संविदि वा संज्ञाने वा सुखी सुखसहितः विपदि विपत्तौ अविदि अज्ञाने वा सपदि झटिति असुखी दुःखयुक्तो न भवति हि निश्चयेन स परीषहकान परीषहा एव परीषहकास्तान् स्वार्थे कप्रत्ययः श्रयितुं सेवितुं सोदुमिति यावत् क्षमः समर्थ इह जगति शुचितपश्च निर्मलतपश्चरणं च विधातुं कर्तुं क्षमः समर्थो भवति ।।९६।। ____ अर्थ - पृथिवी पर जो संपत्ति और सम्यग्ज्ञान में सुखी तथा विपत्ति और अज्ञान में शीघ्र ही दुखी नहीं होता, वही परीषहों को सहन करने में समर्थ होता है और वही निर्मल तप करने में शक्त होता है ||९६।। [९७] . यमविहीनतपश्चरणेन किं, च्युतपरीषहतश्चरणेन किम् । ननु विना सुदृशा न हि संगतं, सकलमेनस एव वशंगतम् ।। यमेति - यमेन संयमेन विहीनं रहितं यत्तपश्चरणमनशनादिस्तेन किं प्रयोजनम् ? च्युतपरीषहतः च्युताः परीषहा यस्मात्तेन सार्वविभक्तिकस्तसिल् परीषहजयरहितेन चरणेन चारित्रेण किम् प्रयोजनम् ? ननु निश्चयेन सुदृशा सम्यग्दर्शनेन बिना संगतं ज्ञानं न हि भवति। सकलं समस्तं जगत् एनस: पापस्यैव वशमधीनतां गतं प्राप्तम्। ‘वृजिनं , (२६०)

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