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हे जिनवर ! तव चरण समागम सुरसुख शिवसुख शान्त रहा, तव गुण गण का सतत स्मरण ही परमागम निर्धान्त रहा। विषय रसिक हैं कुधी रहे हैं अनुपम अधिगम नहीं मिले, विरहित रति से रहूँ इसी से बोध कला उर सही खिले।।१।।
नभ में रवि सम यतनशील हैं यति नायक सुखकारक हैं, ज्ञान-भाव से भरित-झील हैं श्रुतिकारक-दुखहारक हैं। सकल विश्व को सकल ज्ञान से जान रहे शिवशंकर हैं, गति-मति-रति से रहित रहे हैं हम सब उनके किंकर हैं।।२।।
दुख में,सुख में तथा अशुभ-शुभ में नियमित रखते समता, शुचितम चेतन को नमते हैं श्रमण, श्रमणता से ममता। यम-संयम-दम-शम भावो की लेता सविनय शरण अतः, . विभाव-भावों दुर्भावों का क्षरण शीघ्र हो मरण स्वतः।। ३ ।।
मृदुल विषयमय लता जलाती शीतलतम हिमपात वही,. शान्त शारदा, शरण उसी की ले जीता दिन-रात सही। 'शतक परीषह-जय'कहता बस मुनिजन, बुधजन मन हरसे, . मूल सहित सब अघ संघरसे ज्ञान-मेघ फिर झट बरसे।।४।।
उदय असाता का जब होता उलटी दिखती सुखदा है, प्रथम भूमिका में ही होती क्षुधा वेदना दुखदा है। समरस रसिया ऋषि समता से सब सहता निज ज्ञाता है, सब का सब यह विधिं फल तो है समयसार' सुन ! गाता है।।५।।
क्षुधा परीषह सुधीजनों को देता सद्गति सम्पद है, और मिटाता नियमरूप से दुस्सह विधिफल आपद है। कुधीजनों को किन्तु पटकता कुगति कुण्ड में कष्ट! अहा! विषय रसिक हो दुखी जगत है सुखी जगत कह स्पष्ट रहा।।६।।
कनक, कनकपाषाण नियम से अनल योग से जिस विध है, क्षुधा परीषह सहते बनते, शुचितम मुनिजन उस विध है। क्षुधा विजय सो काम विजेता मुनियों से भी वन्दित है, शिव-पथ पर पाथेय रहा है जिन मत से अभिनन्दित है।।७।।
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