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मलपरीषहजित् मलपरिषहं जयतीति तथाभूतो भवतीति शेषः।। ७७।।
___अर्थ - हे सिद्धभगवन् ! जिसका शरीर सूर्य के संताप से उत्पन्न पसीना से युक्त है, जो धूलि और मल से सहित है, आत्मसुधा का पान करने वाला है और जो शरीर को सूखे वृक्ष के समान समझ रहा है ऐसा साधु ही मलपरीषह को जीतने वाला होता है।।७७।।
[७८] बलयुतोऽपि मुनिः स्वतनोर्मलं, न हि निवारयति ह्यतंनोऽमल! चिति चिदस्मि सदास्तु मले मलं, वदति तत्कमलं कमलेऽमलम् ।।
बलेति - हे अतनो! नास्ति तनुः शरीरं यस्य तत्सम्बुद्धौ । हे अमल! नास्ति मलं यस्य तत्सम्बुद्धौ। हे शरीररहित! हे मलरहितपरमात्मन्! मुनिः साधुर्बलयुतोऽपि शक्तिसम्पन्नोऽपि स्वतनोः निजशरीरस्य मलं कच्चरं न हि निवारयति निराकरोति । स विचारयति यथाई चिदस्मि चिद्रूपोऽस्मि चिति ज्ञानदर्शनस्वरूपे स्वात्मनि निवसामि तथा मलमपि सदा मलेऽस्तु तदात्मरूपं भवितुं नार्हति। तद् रहस्यं कमले वसत् अमलं कमलं वदति कथयति। यथा निश्चयतः कमलं कमले कमलात्मनि निवसति व्यवहारतः कमले जले निवसति तथा पौदगलिकं मलं पौदगलिके शरीरे वसति चेतनश्च चेतने निवसति व्यवहारतः शरीरे निवसति ।अतः मलं पौद्गलिकं विदित्वा तत्र द्वेषबुद्धिर्न कार्येति भावः।।७८।।
___ अर्थ - हे अशरीर! निर्मल! परमात्मन्! मुनि, बल सहित होने पर भी शरीर का मैल दूर नहीं करते हैं। वे विचार करते हैं कि मैं चैतन्यरूप हूं तथा चैतन्य में ही निवास करता हूं। इसी प्रकार मैल मैल में रहता है आत्मा में नहीं। यह रहस्य कमल में रहने वाला निर्मल कमल बताता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार परमार्थ से निर्मल कमल कमल में रहता है और व्यवहार से जल में रहता है उसी प्रकार पौद्गलिक मैल पौद्गलिक शरीर में रहता है आत्मा में नहीं; अतः मुनिराज उसे दूर करने का विचार नहीं करते ||७८।।
[७९] विनयशंसनपूजनकादरमलभमानमुनिः ह्यनिरादरः । अविरतैर्ऋतिभिर्मदभावत-श्च्युतविकारललाटविभावतः ।।
विनयेति - मदभावतो मदस्य गर्वस्य भावो मदभावस्तस्मात् अविरतैरसंयपिभिः व्रतिभिः संयमिभिश्च विनयशंसनपूजनकादरं विनयश्च शंसनं च स्तवनं च, पूजनकं चार्चनं
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