Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 268
________________ आत्मवस्त्वेव शुचि निर्मलं पवित्रं वा अस्तीति शेषः ।। ७५।। अर्थ - जो ज्ञानादि गुणों से सहित है, निजभाव से युक्त है और मैं जिसकी निरन्तर भावना करता हूं वह अविनाशी आत्मवस्तु ही निश्चय से मनोहारी सुगन्ध है | हे भवस्तुत! हे सर्वलोकवन्दित भगवन् ! इस शरीर पर जो मल-मैल संलग्न है वह व्यर्थ है- उसकी क्या चिन्ता करना है परमार्थ से मुनियों के द्वारा स्तुत आत्मरूप वस्तु ही शुचि-पवित्र है।।७५।। [७६] पलमलैर्निचिता धिगचेतना, प्रकृतितो दूरभेश्च निकेतना । मलजनीस्तनुरीशविभाषिता, तदनुगा तु सतोऽपि विभा सिता ।। पलेति - ईश विभाषिता ईशेन वीतरागसर्वज्ञदेवेन भाषिता कथिता। इयं तनुः शरीरं पलमलै सिमलैः निचिता व्याप्ता। अचेतना चैतन्यरहिता। प्रकृतितो निसर्गात् दरभेः दुर्गन्धस्य निकेतना वसतिः। मलजनीः मलोत्पादिका अस्तीति शेषः। तथाभूतां तनुं धिगस्तु। तदनुगा शरीरानुगामिनी सतोऽपि साधोरपि विभा दीप्तिः प्रतिष्ठेति यावत् सिता समाप्ता ‘सितं श्वेतसमाप्तयोः' इति विश्वलोचनः। शरीराद्विरक्तबुद्धिरेव साधुर्मल परिषहं जेतुं शक्नोतीति भावः ।।७६ ।। ___अर्थ - भगवज्जिनेन्द्र के द्वारा जिसका स्वरूप कहा गया है ऐसा यह शरीर मांस और मैल से व्याप्त है, अचेतन है, स्वभाव से दुर्गन्ध का घर है और मल को उत्पन्न करने वाला है ऐसे शरीर को धिक्कार हो। इस शरीर का अनुगमन करने वाली साधु की विभा-दीप्ति-प्रतिष्ठा भी समाप्त हो जाती है ||७६ ।। [७७] कतपनाङ्गजरञ्जितदेहकः, सहरजोमलको गतदेहक! । मलपरीषहजित् स्वसुधारकः, विरसपादपभावसुधारकः ।। कतपनेत - हे गतदेहक! गतो नष्टो देहो यस्य तत्सम्बद्धौ हे गतदेहक! हे सिद्धपरमेष्ठिन्! कतपनाङ्गजरञ्जितदेहकः कः सूर्यस्तस्य तपनेन संतापेन समुत्पन्नो योऽङ्गजः स्वेदस्तेन रञ्जितो देहो यस्य तथाभूतः। सहरजोमलकः रजोमलाभ्यां सह विद्यते सह रजोमलकः। धूलिधूसरितशरीरः। स्वसुधारकः स्व आत्मैव सुधा पीयूषं तां राति गृह्णातीति स्वसुधार तथाभूतः क आत्मा यस्य सः। अथवा स्वसुधार एव स्वसुधारकः स्वार्थे कः। विरसपादपभावसुधारकः विरसः शुष्को य: पादपो वृक्षः तस्मिन्निव भावस्य परिणामस्य सुधारको धारणकर्ता शरीरं शुष्कवृक्षमिव यो मन्यत इत्यर्थः । एवंभूतः साधुः (२५१)

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