Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 257
________________ [५०] स उपसर्ग इहाजगता सुरै, जडजनै गुणिभिर्महताऽसुरैः। निशि न चैति मुनिस्तु पदान्तरं, ह्यविचलं सत एव सदान्तरम्।। स इति - इह भुवि, अजगता अजङ्गमेन अचेतनपदार्थेनेति यावत् 'जगद्वाते पुमान् क्लीबे भुवने जङ्गमे त्रिषु' इति विश्वलोचनः। सुरैर्देवैः ज़डजनैरज्ञानिमानवैः गुणिभिः मतविद्वेषिभिः पण्डिताभासैः । महता राज्येन ‘महद्राज्ये नपुंसकम्' इति विश्वलोचनः । असुरैर्दानवैः । उपसर्गे उपद्रवे कृते सति स मुनिः निशि नक्तं पदान्तरं स्थानान्तरं न चैति न च गच्छति । सत एव तत्रैव निश्चितस्थान एव सतो विद्यमानस्य मुनेः अन्तरं अन्तःकरणं सदा सर्वदा हि निश्चयेन अविचलं स्थिरमेव भवतीति शेषः ।।५।। अर्थ - पृथिवी पर अचेतन, देव, अज्ञानिमानव, मन से द्वेष रखने वाले गुणीजन, राज्य अथवा दानवों के द्वारा उपसर्ग किये जाने पर मुनि रात्रि में दूसरे स्थान पर नहीं जाते। उसी स्थान पर रहते हुए उन मुनि का अन्तःकरण अविचल रहता है।।५०।। [५१] विजितनिद्रक एव सदा दरं, त्यजति चेदमरर्द्धिसदादरम्। . यदुपपत्तययिच्छितभोजनं, रसयुतं प्रजहाति च भो! जन।। विजितेति - शय्यापरिषहविजयाय श्रमणं समुपदिशत्याचार्य: भो जन! हे निर्ग्रन्थश्रमण! विजितनिद्रक एव विजिता निद्रा येन तथाभूत एव सदा सर्वदा दरं भयं त्यजति । चेद्यदि शय्यापरिषहविजयमिच्छसि तर्हि अमरर्द्धिसदादरम् अमराणामृद्धिषु यः सदादरः समीचीन आदरभावस्तं त्यजति मुञ्चति यदुपपत्तये यस्य शय्यापरिषह जयस्योपपत्तये संपादनाय रसयुतं षड्रससहितं इच्छितभोजनं अभिलषितभोजनं च प्रजहाति त्यजति ।। ५१।। ___अर्थ - हे साधुजन ! निद्रा को जीतने वाला ही सदा भय को छोड़ता है तथा देव सम्बन्धी वैभव में समीचीन आदरभाव का परित्याग करता है। शय्यापरिषहजय की उपपत्ति-प्राप्ति के लिये रसीले इच्छित भोजन का भी त्याग करता है।।५१।। [५२] ससमयञ्च मुनेश्शयनं हितं, शयनमेवमटेच्छयनं हि तत् । समुदितेऽप्यरुणे ह्युदयाचलेऽप्युडुदलो न हि खे सदयाऽचलेत् ।। ससमयमिति - हे सदय ! दयया सहितः सदयः सकृपस्तत्सम्बुद्धौ। ससमयं समयानुरूपं शयनं स्वापो मुनेः साधो हितं हितकरं भवति । एवमित्यं शयनं स्वाप एव तत् (२४०)

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