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हो प्राप्त, स्वर्ग तक पुण्यविधान से भी,
होता न प्राप्त दृग शस्त निदान से भी । सत् साधना सहज साध्य सदा दिलाती,
लक्ष्मी अहो मृदुल हाथ तभी मिलाती । । ८ । ।
दुर्जेय मोहरिपु को जिनने दबाया,
शुद्धोपयोग मणिहार गले सजाया । वे साधु बोध बिन भी दृग शुद्धि पाते,
बाह्य में निरत हैं दुख ही उठाते ।।९।।
आलोक दे सुजन को रवि से जगाती,
है भव्य कंज दल को सहसा खिलाती । है पापरूप तम को क्षण में मिटाती,
ऐसी सुदर्शन विशुद्धि किसे न भाती ? । । १० ।।
ना पाप को, विनय को शिर मैं नमाता,
हे वीर ! क्योंकि मुझको निज सौख्य भाता । जो भी गया तपन तापतया सताया,
क्या चाहता अनल को, तज नीर छाया?। । ११ । ।
सेना विहीन नृप ज्यों जय को न पाता,
त्यों हीन जो विनय से शिव को न पाता । सत् साधना यदि करे दुख भी टलेगा,
संसार में सहज से सुख भी मिलेगा । । १२।।
निर्भीक हो विनय आयुध को सुधारा,
हे वीर ! मान रिपु को पुनि शीघ्र मारा । पाया स्वकीय निधि को जिसने यदा है,
क्या माँगता वह कभी जड़ संपदा है ।। १३ ।।
वे व्यर्थ का नहिं घमण्ड कभी दिखाते,
सन्मार्ग को विनय से विनयी दिखाते । पापी कुधी तक तभी भवतीर पाते,
विद्वान भी हृदय में जिनको बिठाते ।। १४।।
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