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हो ज्येष्ठ में नित नहीं रवि ओ प्रतापी,
संतप्त पूर्ण करता जग को कुपापी । आचार्य कोटि शत भास्कर तेज वाले,
देते सदा सुख हमें समदृष्टि वाले ।।६९।।
आचार्य को विनय से उर में बिठालूँ,
___मैं पूज्यपाद रज को शिरपै चढ़ा लूँ। हे मित्र! मोक्ष मुझको फलतः मिलेगा
विश्वास है यह नियोग नहीं टलेगा ।।७।।
ज्ञाता बने समय के निज-गीत, गाते,
तो भी कदापि मद को मन में न लाते । वे ही अवश्य उवझाय वशी कहाते, ,
___ भाई उन्हें स्मरण में तुम क्यों न लाते ।।७१।।
कालुष्यभाव रतिराग मिटा दिया है,
आत्मावलोकन तथा जिनने किया है। पूनँ भनूँ नित उन्हें दुख को तगूंगा,
विज्ञान से सहज ही निज को सजूंगा, ।।७२।।
तारा समूह नभ में जब दीख जाता, .
दोषी शशी न दिन में निशि में सुहाता । पै दोष मुक्त उवझाय सदा सुहाते,
ये श्रेष्ठ इष्ट शशि से जिन यों बताते ।।७३।।
स्वाध्याय से चपलता मन की घटा दी,
काषायिकी परिणती जिनने मिटा दी। पावें सुशीघ्र उवझाय स्वसंपदा वे,
आवें न लौट भव में गुरु यों बतावें ।।७४।।
साथी बना कुमुद का शशि पक्षपाती,
भाई सरोज दल का वह है अराती। पैसाम्यधार उवझाय सुखी बनाते,
हैं विश्व को, इसलिये सबको सुहाते ।।७५।।
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