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शुद्धात्म में स्थिति सही तप ही वही हो,
तो नश्यमान तन में रुचि भी नहीं हो । ऐसा न हो सुख नहीं दुख ही अतीव,
. हैं वीतराग गुरु यों कहते सदीव ।।४१।।
आतापनादि तप से तन को तपाया,
योगी बना, बिन दया निज को न पाया। पाया नहीं सुख कभी बहु दुःख पाया,
होता अहिंसक सुखी जिनदेव गाया ।।४२।।
दीखे परीषहजयी वह देखने में,
है लीन यद्यपि महाव्रत पालने में । लक्ष्मी उसे तदपि है वरती न स्वामी ,
जो मूढ़ है विषय लम्पट भूरिकामी ।।४३।।
लोहा सुवेष्ठित रहे यदि वस्त्र से जो,
होगा नहीं कनक पारस संग से ओ । तो संग के सहित जो तप भी करेंगे,
ना आत्म को परम पूत बना सकेंगे ।।४४।।
दावा यथा वनज हो वन को जलाता,
भाई तथा तप सही तन को जलाता । सम्यक्त्व पूर्ण तप की महिमा यही है,
देवाधिदेव जिन ने जग को कही है ।।४५।।
आशा निवास जिसमें करती नहीं है,
सम्यक्त्वबोध युत जो तप ही सही है। ऐसा सदैव कहती प्रभु सन्त वाणी,
तृष्णा मिटे, झटिति पी अति शीत पानी ।।४६ ।।
साधू समाधि करना भव मुक्त होना,
पा कीर्ति पूजन गुणी बन दुःख खोना । ऐसा जिनेश कहते शिवमार्गनेता,
वेत्ता बने जगत के मन अक्ष जेता ।।४७।।
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