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वो आपकी सकल वस्तुप्रकाशिनी है,
नासा, प्रमाणमय, विभ्रम-नाशिनी है । नासाग्र पे इसलिए तुम साम्यदृष्टि,
आसीन है सतत शाश्वत शांति सृष्टि ।। ८५ । ।
हैं आप नम्र गुरु चूंकि भरे गुणों से, हैं पूज्य 'राम'' निज में रमते युगों से । पी, पी, पराग निजबोधन की सुखी हैं,
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नीराग हैं, पुरुष हैं, प्रकृती तजी हैं ।। ८६ ।।
धीर वीर तुम चूँकि निजात्म जेता,
मारा कुमार तुमने ' 'शिव'' साधु नेता । सर्वज्ञ हो इसलिए तुम सर्वव्यापी,
बैठे मदीय मन में अणु हो तथापि ।।८७।।
साता नहीं उदय में जब हो असाता,
मैं आपके भजन में बस डूब जाता । है चन्द्र को निरखता सघनी निशा में,
जैसा चकोर रुचि से न कभी दिवा में ।। ८८ ।।
धाता तुम्हीं अभय दे जग को जिलाते,
नेता तुम्हीं सहज सत्पथ भी दिखाते । मृत्युंजयी बन गये भगवान् कहाते,
सौभाग्य है, कि मम मन्दिर में सुहाते ।। ८९ ।।
ऐसी मुझे दिख रही तुम भाल पे है,
जो बाल की लटकती लट गाल पे है । तालाब में कमल पे अलि भा रहा हो,
संगीत ही गुणगुणा कर गा रहा हो ।।९०।।
काले घने कुटिल चिक्कण केश प्यारे,
ऐसे मुझे दिख रहे शिर के तुम्हारे ।
जैसे कहीं मलयंचन्दन वृक्ष से ही,
हो कृष्ण नाग लिपटे अयि दिव्य देही ! ।। ९१ । ।
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