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वाणी सुधा सदृश सज्जन संगती से,
तेरी, बने कलुष दुर्जन संगती से । औचित्य मेघ जल है गिरता नदी में,
तो स्वाद्य पेय बनता, विष हो अही में ।। ७८ ।।
जैसा सुशान्त रस वो मम आत्म से है,
धारा प्रवाह झरता इस काव्य से है । वैसा कहाँ झर रहा शशि बिम्ब से है,
पूजें तुम्हें तदपि दूर सुवृत्त से है ।। ७९ ।
संसार के विविध वैभव भोग पाने,
पूजें तुम्हें बस कुधी जड़, ना सयाने । ले स्वर्ण का हल, कृषी करता कराता,
वो मूर्ख ही कृषक है जग में कहाता ।। ८० ।।
है मोह नष्ट तुममें फिर अन्न से क्या ?
त्यागा असंयम, सुसंयम भार से क्या ? मारा कुमार तुमने फिर वस्त्र से क्या ?
हैं पूज्य ही बन गये, पर पूज्य से क्या ? ।। ८१ ।।
मेरा जभी मन बना शिवपंथगामी,
संसार भोग उसको रुचते न स्वामी । धमान कौन वह है घृत छोड़ देगा,
क्या ! मान के परम नीरस छाछ लेगा ।। ८२ ।।
मेरी भली विकृति पै मति चेतना है.
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चैतन्य से उदित है जिन- देशना है । कल्लोल के बिन सरोवर तो मिलेगा,
कल्लोल वो बिन सरोवर क्या मिलेगा ? ।। ८३ ।।
लो! आपके स्तवन से बहु निर्जरा हो,
स्वामी! तथापि विधिबंधन भी जरा हो ।
अच्छी दुकान चलती धन खूब देती
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तो भी किराय कम से कम क्या न लेती ? । । ८४ ।।
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