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ना आत्म तृप्ति उदयागत पुण्य में है,
वो शांति की लहर ना शशिबिम्ब में है । जो आपके चरण का कर स्पर्श पाया,
आनन्द ईदृश कहीं अब लौ न पाया । । ६४।।
स्वामी! निजानुभवरूप समाधि द्वारा,
पाया, मिटी - भव-भवाब्धि, भवाब्धि पारा । ये धैर्य धार बुध साधु समाधि साधें,
साधें अतः सहज को निज को अबाधें ।। ६५ ।।
है वज्र, कर्म - धरणी-धर को गिराता,
दावा बना कुमत कानन को जलाता । ऐसा रहा सुखद शासन शुद्ध तेरा,
पाथेय पंथ बन जाय सहाय मेरा ।। ६६ ।।
हो तेज भानु भवसागर को सुखाने,
गंगा तुम्हीं तृषित की कुतृषा बुझाने । हो जाल इंद्रियमयी मछली मिटाने,
मैं भी, तुम्हें, सुबुध भी इस भाँति मानें ।। ६७।।
मेरी मती स्तुति सरोवर में रहेगी,
होगी मदाग्नि मुझमें, रह क्या करेगी । पीयूष सिन्धु भर में विषबिन्दु क्या है ?
अस्तित्व हो पर प्रभाव दबाव क्या है ? ।। ६८ ।।
स्याद्ववादरूप मत में, मत अन्य खारे,
ज्यों ही मिले मधुर हो बन जाएं प्यारे । मात्रानुसार यदि भोजन में मिलाओ,
खारा भले लवण हो अति स्वाद पाओ ।। ६९ ।।
ले आपकी प्रथम मैं स्तुति का सहारा,
पश्चात् नितांत निज में करता विहारा । ज्यों बीच बीच निज पंख विहंग फैला,
फैला विहार करता नभ में अकेला ।। ७० ।।
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