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' हे ईश धीश मुझमें बल बोधि डालो !
कारुण्य धाम करुणा मुझमें दिखालो । देहात्म में बस विभाजन तो करूँगा,
शीघ्रातिशीघ्र सुख भाजन तो बनूँगा ।।५०।।
विज्ञान से शमित की रति की निशा है,
__ पाया प्रकाश तुमने निज की दशा है । तो भी निवास करते मुझमें विरागी !
आलोक धाम तुम हो, तम मैं, सरागी ।।५१।।
शुद्धात्म में तुम सुनिश्चय से बसे हो,
जो जानते जगत को व्यवहार से हो । होती सदा सहजवृत्ति सुधी जनों की,
इच्छामयी विकृतवृत्ति कुधी जनों की ।।५२।।
संसार को निरखते न यथार्थ में हैं,
लो आप केवल निजीय पदार्थ में हैं। संसार ही झलकता दृग में तथा हैं,
नाना पदार्थ दल दर्पण में यथा हैं ।। ५३।।
स्वादी तुम्ही समयसार स्वसम्पदा के,
__ आदी कुधी सम नहीं जड़ सम्पदा के। औचित्य है भ्रमर जीवन उच्च जीता,
___ मक्खी समा मल न, पुष्प पराग पीता ।।५४।।
है वस्तुतः जड़ अचेतन ही तुम्हारी
वाणी तथापि जग पूज्य प्रमाण प्यारी । है एक हेतु इसमें तुमने निहारा,
विज्ञान के बल अलोक त्रिलोक सारा ।।५५।।
सम्यक्त्व आदिक निजी बल मोक्षदाता,
वे ही अपूर्ण जब लौ सुर सौख्यधाता । औचित्य वस्त्र बनता निज तन्तुओं से,.
ऐसा कहा कि तुमने मित सत् पदों से ।। ५६ ।।
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