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चारों गती मिट गयी तुम ईश ! शम्भू,
हो ज्ञान पूर निजगम्य अतः सयम्भू, ध्यानाग्नि दीप्त मम हो तुम वात हो तो,
संसार नष्ट मम हो तुम हाथ हो तो ।।४३।।
हो आपको नमन तो सघना अघाली,
पाती विनाश पल में दुख शील वाली। फैला पयोद दल हो नभ में भले ही,
थोड़ा चले पवन तो बिखरे उड़े ही ।। ४४।।
श्री पाद मानस सरोवर आपका है,
होते सुशोभित जहाँ नख मौक्तिका हैं। स्वामी ! तभी मनस हंस मदीय जाता,
' प्रायः वहीं विचरता चुग मोति खाता ।।४५।।
लो ! आपके चरण में भवभीत मेरा,
विश्रान्त है अभय पा मन है अकेला । माँ का उदारतम अंक अवश्य होता,
निःशंक हो शरण पा शिशु चूँकि सोता ।।४६।।
हो वर्धमान गतमान प्रमाणधारी,
क्यों ना सुखी तुम बनो जब निर्विकारी । स्वात्मस्थ हो अभय हो मन अक्षजेता,
हो दुःख से बहुत दूर निजात्मवेत्ता ।।४७।।
सन्मार्ग पे विचरता मुनि हो अकेला,
स्वामी ! हुआ बहुत काल व्यतीत मेरा । मेरे थके पग अभी कितना विहारा,
बोलो कि दूर कितना तुम धाम प्यारा ।।४८।।
स्वामी अपूर्व रवि हो द्युति धाम प्यारे,
ये तेज हीन रवि सम्मुख हो तुम्हारे, मानो नहीं स्वयम को रवि हे विरागी !
क्यों अग्नि है मम तपो मणि में सुजागी? ।। ४९।
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