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'रे ! पाप ही अहित है, रिपु है तुम्हारा,
काला कराल अहि है, दुःख दे अपारा । हो दूर शीघ्र उससे, तब शान्ति धारा,
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ऐसा कहें जिनप जो जग का सहारा ।। ७१ ।।
ले रम्य दृश्य ऋतुराज वसन्त आता,
ज्यों देख कोकिल उसे मन मोद पाता । Stre हे वीर ! त्यों तव सुशिष्य खुशी मनाता,
शुद्धात्म को निरख औ' दुःख भूल जाता ।। ७२ ।।
होता कुधी, वह सुखी दिवि में नहीं है,
तू आत्म में रह, अतः सुख तो वही है । क्या नाक से नरक से ? इक सार भाया,
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सम्यक्त्व के बिन सदा ! दुःख ही उठाया ।। ७३ ।।
ज्योत्स्ना लिये, तपन यद्यपि है प्रतापी,
छा जाय बादल, तिरोहित हो तथापि । आत्मा अनन्त द्युति लेकर जी रहा है,
हो कर्म से अवश, कुन्दित हो रहा है ।। ७४।।
कैसे मिले ? नहिं मिले सुख मांगने से,
कैसे उगे अरुण पश्चिम की दिशा से ? तो भी सुदूर वह मूढ़ निजी दशा से,
होता अशान्त अति पीड़ित ही तृषा से । । ७५ । ।
लिप्सा कभी विषय की मन में न लाओ,
चारित्र धारण करो, पर में न जाओ । चिन्ता कदापि न अनागत की करोगे,
विश्राम स्वीय घर में चिरकाल लोगे ।। ७६ ।।
संसार सागर असार अपार खारा,
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है दुःख ही, सुख जहां न मिले लगारा ।
तो आत्म में रत रहो, सुख चाहते जो,
है सौख्य तो सहज में, नहिं जानते हो? । । ७७ ।।