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तू चाहता विषय में मन ना भुलाना,
तो सात तत्त्व-अनुचिन्तन में लगा ना ! ऐसा न हो, कुपथ से सुख क्यों मिलेगा ?
आत्मानुभूति झरना फिर क्यों झरेगा ? ।। ९९ ।।
हूं बाल, मन्द-मति हूं, लघु हूं, यमी हूं, मैं राग की कर रहा क्रम से कमी हूं । हे चेतने ! सुखद - शान्ति-सुधा पिला दे,
माता ! मुझे कर कृपा मुझमें मिला दे ।। १००।।
चाहूं कभी न दिवि को अयि वीर स्वामी !
पीऊं सुधा रस निजीय, बनूं न कामी । पा 'ज्ञानसागर' सुमन्थन से सुविद्या,
'विद्यादिसागर' बनूं, तज दूं अविद्या ।। १०१ ।।