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XXVI : पंचलिंगीप्रकरणम्
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जो अंततः व्यक्ति को पापक-कर्मों में प्रवृत्त करते हैं ।
उसका विकसित विवेक उसे सही व गलत में भेद करने की योग्यता देता है तथा वह सदैव गलत को छोड़कर सही को चुनता है ।
उसे जीवन की क्षणिकता का आभास होता है, अतः वह अपने जीवन को पापक सांसारिक भोग-विलास में न गंवा आध्यात्मिक हितसाधन में लगाता है।
वह सांसारिक भोग-विलास की निरर्थकता व अंततः उनके द्वारा मिलने वाले क्लेश के प्रति सजग होता है अतः भोगमय जीवन त्याग देता है ।
१०. उसके क्रिया-कलाप उसके विचारों के प्रतिबिम्ब होते हैं, जो सर्वदा पवित्र व आध्यात्मिक होते हैं ।
११. सम्यग्दृष्टि साधक अपने जीवन में एक ही भय को मानता है और वह है पाप का भय । उसकी यह पाप-भीरुता ही उसे सद्गुणी व सदाचारी बनाती है 1
सांसारिक दृष्टि से भी सम्यग्दृष्टि की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता है । दृष्टि या परिप्रेक्ष्य किस प्रकार व्यक्ति की मानसिकता को परिवर्तित कर देता है इसे हम निम्नांकित बौद्ध जातक-कथा से समझ सकते है । -
एकदा एक वृद्धा के एकमात्र पुत्र का देहावसान हो गया । अपने प्रगाढ वात्सल्य के कारण वृद्धा अपने पुत्र की असामयिक मृत्यु के सत्य को स्वीकार न कर सकी तथा उसकी चिकित्सा कर रहे वैद्य से बारंबार उसका उपचार करते रहने तथा उसे बचा लेने का अनुरोध करने लगी । वह न केवल जार-जार रो रही थी वरन् अपने मृत पुत्र के शव को अंतिम संस्कार के लिये भी नहीं ले जाने दे रही थी । बुद्धिमान् वैद्य ने उसे सलाह दी कि वह समीप ही वास कर रहे भगवान् बुद्ध के पास जाए तो संभवतया वे उसके पुत्र को बचालें । वृद्धा ने भगवान् बुद्ध के पास जाकर निवेदन किया कि वे उसके पुत्र को स्वस्थ कर दें । भगवान् बुद्ध ने यह