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XXIV : पंचलिंगीप्रकरणम्
जैसा कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय मोक्ष-मार्ग में सम्यग्दर्शन का प्रथम स्थान दर्शाता है, इसकी महत्ता को बहुत पहले से अनुभव कर लिया गया था । तत्त्वार्थसूत्र के मोक्ष - मार्ग विषयक सूत्र से स्पष्ट है कि मुक्ति-मार्ग के तीन अवयव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इसी क्रम में हैं।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रत्येक प्राणी का अंतिम उद्देश्य इस दुःखमय संसार से मुक्ति पाना है । जो भी इस महत्कार्य में प्राणी की सहायता करे वह महत्त्वपूर्ण है । फिर यह सोचना भी तर्कसंगत है कि कोई भी व्यक्ति धर्म का पालन करके संसार से मुक्त हो सकता है, उसे इन सब झमेलों में पड़ने की क्या आवश्यकता है? यहॉ भी सम्यग्दर्शन का महत्व इस बात में है कि वह स्वयं ही धर्म का मूल है। आखिर मूल को सिंचित किये बिना किसी वृक्ष की छाया का आनंद कब तक लिया जा सकता है? एक अन्य तर्कानुसार नैतिकता से युक्त सदाचरण ( सम्यक्चारित्र) के पालन से मुक्ति संभव है। यहाॅ भी तर्क ही हमें यह भी कहता है कि सम्यक्चारित्र क्या है? इसका ज्ञान तो हमें सम्यग्ज्ञान से ही होता है जो सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही संभव है। जब सूचना का समन्वय परिप्रेक्ष्य से होता है तो वह ज्ञान बनती है । जब तक सूचना को सम्यग्दर्शन के द्वारा प्राप्त सही परिप्रेक्ष्य से संयुक्त नहीं किया जाय वह सूचना ही रहती है, मेधा के साथ मिल कर सम्यग्ज्ञान नहीं बन पाती है। परिप्रेक्ष्य ही सूचना को ज्ञान में परिवर्तित करता है तथा सम्यग्दर्शन द्वारा प्राप्त परिप्रेक्ष्य उसे सम्यग्ज्ञान में परिवर्तित कर देता है । अतः उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठाईसवें अध्ययन की तीसवीं गाथा में वर्णित कथन कि 'सम्यक्तव के बिना ज्ञान नहीं होता है, ज्ञान के बिना चारित्र - गुण नहीं होता है, चारित्र - गुण के बिना मोक्ष नहीं होता है तथा मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता है" में बहुत सार है ।
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“नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरण-गुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।। ”
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उत्तराध्ययनसूत्र,