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XXII : पंचलिंगीप्रकरणम्
विवेक कर पाने की क्षमता अथवा यह कि वह वस्तुओं को कैसे, किस दृष्टि से देखता है? सही अर्थों में इसे अंतःबोध व विवेक के समन्वित रूप में देख जा सकता है। इसे प्रकारांतर से अपने पर्यावरण के सामान्य-ज्ञान या सामान्य-बोध के रूप में भी लिया जा सकता है। यहाँ सामान्य-बोध को हमें विशेष-बोध के संदर्भ में लेना होगा जिसे 'ज्ञान' कहा जाता है। अतः सामान्य-बोध दर्शन है तथा विशेष-बोध ज्ञान है। इस प्रकार दर्शनयुक्त प्राणी या व्यक्ति को अपने संपूर्ण पर्यावरण का सामान्य-बोध होता है जब कि ज्ञानयुक्त व्यक्ति उसके कुछ ही अंशों का विशेष ज्ञान रखता है। दर्शन (सामान्य-बोध) व ज्ञान (विशेष-बोध) में यह मौलिक अंतर है। यही सामान्य-बोध (दर्शन) जब सही दृष्टि या सही परिप्रेक्ष्य से समन्वित हो जाता है तो इसे 'सम्यग्दर्शन' कहा जाता है। यह सुस्पष्ट है कि एक दर्शनयुक्त व्यक्ति की दृष्टि बहुत व्यापक होती है तथा वह किसी भी मामले में अनेक दृष्टिकोणों से विचार कर सकता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं के दर्शनयुक्त व्यक्ति का दृष्टिकोण सारमूलक, पूर्णतावादी या व्यापक होता है। लेकिन धर्म-दर्शन के संदर्भ में सम्यग्दर्शन का अर्थ है धर्म के सिद्धान्तों में दृढ़ व निष्कम्प विश्वास। अतः 'दर्शन' शब्द के हमें दो अर्थ प्राप्त होते हैं - १. सम्यक्-दृष्टि व २. सम्यक्-विश्वास। जैन-दर्शन के अनुसार प्रथम अर्थ में सम्यग्दर्शन का अर्थ है किसी वस्तु या व्यक्ति को राग व द्वेष से ऊपर उठकर सही परिप्रेक्ष्य में देखने की क्षमता। इसका मतलब है कि सम्यग्दृष्टि व्यक्ति आग्रह व पक्षपात से ऊपर उठ कर सही निर्णय लेने की क्षमता रखता है। दूसरे अर्थ में यह तीर्थकर-वचन या तीर्थकर प्रतिपादित धर्म पर दृढ़ श्रद्धा का समानार्थक है। यहाँ यह माना जाता है कि एक सामान्य मेधा-बुद्धि वाला व्यक्ति इतना प्रज्ञावान् नहीं होता कि वह वस्तुओं को उतने विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देख पाए जितना कि केवली अपने अनंत-दर्शन में देख पाता है अतः आवश्यकता है कि हम अल्प-प्रज्ञा वाले छद्मस्थ तीर्थंकरों द्वारा व्यक्त विचारों पर संपूर्ण, दृढ़ व निष्कंप श्रद्धा रखें। परंपरा से जैन व्याख्याकारों ने दर्शन का दूसरा अर्थ ही बहुधा लिया है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रारंभ में ही सूत्रकार वाचक उमास्वाति यह कहते हैं कि 'तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित