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अपनी-अपनी दृष्टि
प्रसिद्ध लेखक ए. जी. गार्डिनर ने अपने एक लेख में लिखा कि हरएक व्यक्ति दुनिया को अपनी ही नजर से देखता है । यह कथन जीवन में दृष्टिकोण के महत्व को दर्शाता है, सम्यग्दृष्टि का महत्व प्रतिपादित करता है । सम्यग्दृष्टि के सद्भाव में हम वस्तुओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देख पाते हैं तथा उसके अभाव में बहुधा गलत चीजें सही लगती हैं तथा सही चीजें गलत नजर आती हैं। जैन चिंतकों ने सम्यग्दृष्टि के विषय पर गहन चिंतन किया है तथा वस्तुओं व विचारों को उनके सही-सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता पर बल दिया है । उन्होने तो इसके महत्व को रेखांकित करते हुवे यहाॅ तक कहा है कि सम्यग्दृष्टि ही धर्म का आधार है, धर्म का मूल है, 'धर्म दर्शन मूलक है । ३ साथ ही उन्होने यहाॅ तक कहा कि किसी सम्यग्दृष्टि जीव के चारित्र - भ्रष्ट हो जाने पर भी उसके मुक्त होने की संभावना बनी रहती है क्योकि वह अपनी सम्यग्दृष्टि के कारण भविष्य में फिर सम्यक्चारित्र में स्थिर हो सकता है किंतु दर्शन- भ्रष्ट व्यक्ति तो कभी भी संसार - मुक्त नहीं हो सकता है, उसके पुनः धर्म-मार्ग पर आने की संभावना अत्यंत धूमिल होती है क्योंकि वह तो गलत को ही सही समझता है । यहाॅ हम पुरातनकालीन जैन तत्त्व-दर्शकों द्वारा प्रतिपादित एवं उनके बाद के सहस्रों वर्षों में हुवे आचार्यों व विद्वानों द्वारा व्याख्यायित सम्यग्दर्शन की अवधारणा को प्रस्तुत करेंगे ।
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दर्शन व सम्यग्दर्शन
२
सम्यग्दर्शन का स्वरूपचिंतन'
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आमुख : XXI
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दर्शन से तात्पर्य है किसी प्राणी या व्यक्ति के अच्छे व बुरे में
श्रेयस, जैन-धर्म : जीवन-धर्म, आगम-अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, २००४, पृष्ठ ६३-११०.
Everyone looks at the world outside him through his own peep-hole.
"दंसण - मूलओ धम्मो ।”
• कुंदकुंदाचार्य, दर्शन - पाहुड़ कुंदकुंदाचार्य, दर्शन - पाहुड
"दंसण - भठ्ठो भठ्ठो ।”