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आमुख : XXv सम्यग्दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पक्ष यह है कि वह साधक को पाप मुक्त रखता है । सर्वप्रथम जैन अंग-आगम आचारांग में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि (जीव ) कोई पाप नहीं करता है ।' ऐसा मानने के कई कारण हैं
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प्रथमतः तो सम्यग्दृष्टि साधक वस्तुओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखता है । तत्त्वार्थों के बारे में उसकी दृष्टि यथार्थ - दृष्टि होती है । वह सजीव व अजीव के भेद को भली-भाँति देख सकता है तथैव स्वयं की आत्मा का लोक के अन्य प्रणियों के साथ तादात्म्य स्थापित कर पाता है और उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसा वह स्वयं के प्रति किया जाना पसंद करता है तथा जैसा व्यवहार वह स्वयं के प्रति किया जाना पसंद नहीं करता है वैसा व्यवहार वह दूसरों के प्रति भी नहीं करता है, वह अहिंसक हो जाता है। अंततः यही तो धर्म का सार है ।
दूसरे, ऐसा साधक स्वयं के कषायों पर विजय पा लेता है तथा अपने आवेगों पर नियंत्रण कर पाता है, वह पाप-कार्यों से विमुख रहता है । वह आत्मा व शरीर के द्वित्व को भली-भाँति समझ लेता है तथा भौतिकता व आधिभौतिकता में अंतर कर पाता है । वह अपने आध्यात्मिक हितों के रक्षण के प्रति जागरूक रहता है तथा पापक-कर्मों से विरत रहता है।
वह संसार के दुःखद स्वरूप को अनुभव कर सकता है तथा इससे मुक्ति के लिये प्रयत्नरत रहता है ।
उसका विरक्त स्वभाव उसे कई पापों से दूर रखता है ।
सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान आदि के प्रति उसका दृष्टिकोण यथार्थ होता है तथा वह उनसे अप्रभावित रहता है। अतः वह अवसाद, क्रोध, बदले, आदि की भावना से संचालित नहीं होता है
" सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । । "
आचारांग