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XX : पंचलिंगीप्रकरणम्
भ्रष्ट कभी भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता है'; कि दर्शनशुद्ध जीव ही शुद्ध है तथा वही निर्वाण को प्राप्त करता है, क्योंकि दर्शनसम्पन्न व्यक्ति भवभ्रमण के कारणभूत मिथ्यात्त्व का छेदन करता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव के गुणों का वर्णन करते हुवे शास्त्रों में कहा गया है कि उसके द्वारा किये गए कार्यों के लिये उसे स्वल्पकर्मबंध ही होता है; कि वह जो कुछ भी करता है वह कर्म - निर्जरा के निमित्त ही करता है; कि सम्यग्दृष्टि जीव निश्शंक होते हैं अतः निर्भय होते हैं; कि सम्यग्दृष्टि जीव अपनेआप में ही लीन रहता है और हेयाहेय का ज्ञाता होता है ।
सम्यग्दर्शन विषय की इस महत्ता के कारण ही जैन दार्शनिक ग्रंथों में इसका विशद विवेचन हुआ है। इसके स्वरूप, गुण-दोष, लिंग आदि पर गहन चिंतन हुआ है । श्रीमज्जिनेश्वरसूरि विरचित 'पंचलिंगीप्रकरणम्' भी इसी कड़ी का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
विषय के महत्त्व को लक्ष्य करके ही इस परिचयात्मक निबंध रूपी आमुख का संयोजन निम्नानुसार किया गया है:
सम्यग्दर्शन का स्वरूपचिंतन,
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प्रचलिंगीप्रकरणम् का समीक्षात्मक परिचय, तथा ग्रंथकार श्रीमज्जिनेशवरसूरि : व्यक्तित्व व कृतित्व
भक्तपरिज्ञा, ६६.
मोक्षपाहुड़, ३६.
उत्तराध्ययनसूत्र, २६.६१.
वंदित्तुसूत्र, ३६.
कुंदकुंदाचार्य, समयसार, १९३.
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वही, २२८.
कुंदकुंदाचार्य, भावपाहुड़, ३१. कुंदकुंदाचार्य, सूत्रपाहुड़, ५.