________________
[36]
के स्थान पर अर्थात् दोनों मिलकर एत्, ओत्, अर्, अल् आदेश रूप कार्य होता है।
यहाँ 'न्यायसंग्रह' में कुछेक न्याय ऐसे है, जो निमित्त के स्वरूप और निर्णय में सहायक है। १. अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य (१-१४), २. निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य (१-३२), ३. एकानुबन्धग्रहणे न द्वयनुबन्धकस्य (१-३३), ४. प्रत्ययाप्रत्यया प्रत्ययस्यैव (२-२), ५. प्राकरणिकाप्राकरणिकयोः प्राकरणिकस्यैव (२-४), ६. निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन (२-५), ७. साहचर्यात्सदृशस्यैव (२-६), ८. चकारो यस्मात्परस्तत्सजातीयमेव समुच्चिनोति (२-६१) इत्यादि ।
ऊपर बताये हुए आठ न्यायों में से १. प्राकरणिकाप्राकरणिकयो: प्राकरणिकस्यैव (२-४), २. साहचर्यात्सदृशस्यैव (२-६) ३. चकारो यस्मात्परस्तत्सजातीयमेव समुच्चिनोति (२-६१) न्याय कार्यि के निर्णय में भी सहायक हैं। १६. बलाबलोक्ति न्याय
जब एक ही स्थान पर दो भिन्न भिन्न सूत्र निर्दिष्ट दो भिन्न भिन्न कार्य होने की प्राप्ति अर्थात् परिस्थिति पैदा हुई हो तब कौन से सूत्र की प्रवृत्ति हो ? यह प्रश्न खडा होता है और उसे स्पर्धा कही जाती है। स्पर्धा' की व्याख्या करते हुए 'न्यायसंग्रह' के कर्ता 'सकृद्गते स्पर्द्ध यद्बाधितं तद्बाधितमेव' न्याय की वृत्ति में कहते हैं कि 'द्वयोर्विध्योरन्यत्र सावकाशयोस्तुल्यबलयोरेकत्रोपनिपातः स्पर्धः' दो समानबलवाले सूत्र, जिसकी प्रवृत्ति का अन्यत्र पूर्ण अवकाश हो, ऐसे सूत्रों की एक ही स्थान पर प्राप्ति हो, उसे स्पर्धा कही जाती है।
ऐसी स्पर्धा के समय सामान्यतया जो सूत्र पर हो अर्थात् बाद में आया हो उसकी प्रवृत्ति होती है और वह पाणिनीय परम्परा में 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्' (पा. सू. १/४/२) से निर्दिष्ट है, जबकि सिद्धहेम की परम्परा में ‘स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र से निर्दिष्ट है।
पाणिनीय परम्परा में अष्टाध्यायी में आठवें अध्याय के अर्थात् संपूर्ण अष्टाध्यायी के अन्तिम तीन पादखण्डों में, महर्षि पाणिनि ने ऐसे ही सूत्रों का संग्रह किया है, जो इससे पूर्व आये हुए सभी सूत्रों की प्रवृत्ति को. रोककर, इन्हीं सूत्रों की प्रवृत्ति करता है, किन्तु महषि पाणिनि के बाद कुछ शतकों के बाद हुए वार्तिकका कात्यायन को पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूक्ष्म निरीक्षण से पता चला कि कुछ नियम/सूत्र जो पूर्व में आये हैं, उसकी प्रवृत्ति करना आवश्यक है। अतः उन्होंने कुछ नये वार्तिक, जो पूर्व सूत्रों की बलवत्ता के बोधक हैं, बनाकर अष्टाध्यायी में पूरक रूप से दाखिल कर दिये । तो महाभाष्यकार पतंजलि ने उसका समाधान दूसरे ढंग से दिया है । उन्होंने बताया कि जहाँ स्पर्धा हो और उसी स्थान पर यदि परसूत्र निर्दिष्ट कार्य करने से अनिष्ट प्रयोग या रूप सिद्ध होता हो और पूर्वसूत्र निर्दिष्ट कार्य करना आवश्यक हो वहाँ 'पर' शब्द को 'इष्टत्ववाचि' लेना चाहिए, ऐसा पाणिनि ने स्वयं कहा है या पाणिनि ने स्वयं कहे हुये सूत्र ‘विप्रतिषेधे परं कार्यम्' में बताया गया है।
स्पढे ७/४/११९ सूत्र या विप्रतिषेधे परं कार्यम् (पा. १/४/२) सूत्र सामान्य रूप से बलवत्ता का बोधक है किन्तु उसके विभिन्न अपवाद है और वे विभिन्न न्यायों से बताये गए हैं ।
'परान्नित्यम्' (१-५२) न्याय परसूत्र से नित्यसूत्र को बलवान् बताता है, तो 'बलवन्नित्यमनित्यात्' (१४१) न्याय सामान्यतया नित्यसूत्र को अनित्यसूत्र से बलवान् बताता है । इस प्रकार निम्नोक्त सभी न्याय उसमें निर्दिष्ट दो प्रकार के कार्यो में से कौन बलवान् है, इसका निर्देश करते हैं। 57. The word 'पर' in the rule 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्' could be taken to mean foremost in mind or
'desirable' (इष्ट) and all such cases, where the application of the previous rule was found necessary, could explained by the rule 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्', stated by Panini himself. (Introduction of Paribhāsendusekhara by Prof. K. V. Abhyankara pp.25)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org