________________
[34] धातुओं के अनुबन्ध इस प्रकार हैं, अ- तक (तक् ) हसने, आ-हुर्छा ( हुर्छ) कौटिल्ये, इ-ककि (कक्) लौल्ये, ई-भजी (भज् ) सेवायां इत्यादि प्राय: २७ से अधिक अनुबंध धातु से सम्बन्धित है। वैसे धातु से होनेवाले प्रत्यय सम्बन्धित कुछेक अनुबन्ध इस प्रकार है । १. व् - तिव्, तुव्, दिव् इत्यादि, २. क् - क्य, यक्, कान, क्वसु, क्त, क्तवतु इत्यादि, ३. ख् -खश्, खुकञ्, इत्यादि, ४. ५ - घञ्, घ इत्यादि, ५. ङ्-यङ्, ङ, अङ् इत्यादि, ६. ञ् - घञ्, जिच् इत्यादि, ७. श् - शव, आनश, खश, श्ना, श्नु, श इत्यादि । ऐसे बहुत से प्रत्यय सम्बन्धित अनुबन्ध हैं, हालाँकि आ. श्रीलावण्यसूरिजीकृत धातु और प्रत्यय के अनुबंध का फल बतानेवाली कारिका और उसके गुजराती विवेचन में प्रत्यय सम्बन्धित सभी अनुबन्ध नहीं बताये हैं।
शब्द में भी कहीं कहीं अनुबन्ध है । उदा. नामधातु प्रक्रिया में 'चित्र' शब्द में अनुबन्ध है तथा 'भवतु' शब्द में उ अनुबन्ध है तो शतृ प्रत्ययान्त 'कुर्वतृ' शब्द में ऋअनुबन्ध है।
शब्द से होनेवाली विभक्ति के प्रत्यय तथा छडे व सातवें अध्याय में निर्दिष्ट तद्धित प्रत्यय शब्द से ही होते हैं और उसमें विविध अनुबन्ध पाये जाते हैं । वे इस प्रकार हैं - १. शब्द से होनेवाली विभक्ति के प्रत्यय के अनुबन्ध - इ - सि, ज-जस्, श्-शस्, ट् - टा, ङ्-डे, ङसि, डस्, डि, प्-सुप् ।
शब्द से होनेवाले तद्धित प्रत्यय सम्बन्धित विविध अनुबन्ध इस प्रकार है - १. ण् - अण, इकण, एयण, आयनण्, ण, गैर, एरण, ट्यण, ण्य, ड्वण, इत्यादि । २. ञ् -नञ्, स्नञ्, ञ, अञ्, यञ्, इञ्, आयन्य, आयनञ्, एयकञ्, इनञ्, ज्य, आयनिञ्, अकञ्, इत्यादि । ३. ट् - मयट, तयट्, डट्, थट, तमट्, मट, तिथट, इथट्, मात्रट्, द्वयसट, दमट, ट्यण, इत्यादि । ४. प् - थ्यप्, तमप्, तरप इत्यादि ।
ऊपर बताये गए सभी और उससे अतिरिक्त सभी-धातु, शब्द व प्रत्यय सम्बन्धित अनुबन्ध उसी उसी धातु, शब्द या प्रत्यय के अवयव माने जाते हैं या नहीं, उसकी चर्चा पाणिनीय परम्परा की 'अनेकान्ता अनुबन्धाः' (क्र.
४) और 'एकान्ताः' (क्र. नं. ५) परिभाषाओं में सामान्यतया विचार किया गया है और आगे चलकर 'नानुबन्धकृतमनेकाल्त्वम्' (क्र. नं.६), 'नानुबन्धकृतमनेजन्तत्वम्' (क्र. नं. ७) व 'नानुबन्धकृतमसारूप्यम्' (क्र. नं. ८) में इसके बारे में विशेषरूप से विचार किया गया है। ये तीनो परिभाषाएँ सबसे प्राचीन व्याडि के परिभाषासूचन में प्राप्त है।
अन्तिम तीनों परिभाषाएँ सिद्धहेम की परम्परा में केवल एक ही न्याय में समाविष्ट है । - 'नानुबन्धकृतान्यसारूप्यानेकस्वरत्वानेकवर्णत्वानि' सिद्धहेम की परम्परा में सामान्य रूप से 'अनेकान्ता अनुबन्धाः' न्याय का ही अनुसरण किया गया है क्योंकि वे सभी अनुबन्ध केवल उपदेश अवस्था में ही दृश्यमान हैं किन्तु प्रयोग अवस्था में 'अप्रयोगीत् १/१/३७ सूत्र से इत् संज्ञा होकर अदृश्य हो जाते हैं। यदि वे प्रकृति या प्रत्यय के अवयव होते तो प्रयोग अवस्था में कुछेक या किसी न किसी प्रयोग में दृश्यमान होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है, अत: उन सब को कुछेक अपवाद को छोडकर अवयव नहीं माने गये हैं। इसकी चर्चा 'अप्रयोगीत्' १/ १/३७ सूत्र के बृहत्र्यास में प्राप्त है।
पाणिनीय परम्परा में व्याडि, चान्द्र, (चन्द्रगोमिन्), शाकटायन, कातन्त्र में दुर्गसिंह, कालाप इत्यादि ने अनुबन्ध का स्वरूप बतानेवाले वाक्य 'उच्चरितप्रध्वंसिनोऽनुबन्धाः' को भी परिभाषा के रूप में बताया है। १४. कार्यि का स्वरूप और निर्णय
व्याकरणशास्त्र के बहुत से सूत्रों में मुख्यतया तीन विभाग या खण्ड होते हैं । एक विभाग कार्यि कहा जाता है । कार्यि वही कहा जाता है जिस पर जिस में कार्य होता है। कार्यि में जो परिवर्तन होता है, वह कार्य कहा जाता है, तो जिसके कारण या जिसके सानिध्य से यही कार्य होता है, उसे निमित्त कहा जाता है। उदा. 55. द्रष्टव्य : परिभाषासंग्रह - तालिका - पृ. ४७०, क्र. नं. ९४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
"www.jainelibrary.org