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आधारित है।
'शब्दान्तरस्य प्राप्नुवन् विधिरनित्यः' (क्रम. नं. ४३) परिभाषा व्याडि ने परिभाषासूचन में (क्र. नं. ७७) तथा पुरुषोत्तमदेव ने (परिभाषापाठ क्रं. नं. ४४) दी है। यही व्याख्या थोडा सा परिवर्तन करके अगली/दूसरी परिभाषा के रूप में इस प्रकार बतायी है - 'शब्दान्तरात् प्राप्नुवन् विधिरनित्यः' (क्र. नं. ४४), तो व्याडि ने भी यही परिभाषा दूसरे स्वरूप में दी है - 'लक्षणान्तरेण प्राप्नुवन् विधिरनित्यः' (क्र. नं. ४५) वह परिभाषासूचन में क्र. नं. ७८) प्राप्त है। अनित्यत्व का स्वरूप बतानेवाली दूसरी परिभाषा 'स्वरभिन्नस्य प्राप्नुवन् विधिरनित्यः' (क्र. नं. ४९) भी महाभाष्य में प्राप्त है।।
महाभाष्य के आधार पर यही परिभाषा 'यस्य च लक्षणान्तरेण निमित्तं विहन्यते तदप्यनित्यम्' (क्र. नं. ४८) अनित्यत्व का स्वरूप बताती है। जबकि 'यस्य च लक्षणान्तरेण निमित्तं विहन्यते न तदनित्यम्' (क्र. नं. ४७) परिभाषा नित्यत्व का स्वरूप बताती है। प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी ने इस परिभाषा को भी अनित्यत्व का स्वरूप बतानेवाली कही है किन्तु वह सही नहीं है क्योंकि यहाँ स्पष्टरूप से 'न तदनित्यम्' शब्दों हैं।
'नित्यत्व' की दूसरी व्याख्या ऐसी भी बतायी गई है कि जिस सूत्र की प्रवृत्ति करना आवश्यक ही हो अर्थात् जिस सूत्र की प्रवृत्ति में प्रयोक्ता की इच्छा का कोई अवकाश ही न हो, वह नित्य कहा जाता है, जबकि जिस सूत्र की प्रवृत्ति प्रयोक्ता अपनी इच्छानुसार कर भी सकता है या नहीं भी कर सकता है, ऐसे सूत्रों या कार्यों को अनित्य कहा जाता है। ऐसे कार्यों प्राय: सभी व्याकरणशास्त्र की परम्परा में समान ही है। पाणिनीय परम्परा में परिभाषेन्दुशेखर में ऐसे अनित्य कार्यों का निर्देश निम्नोक्त परिभाषा द्वारा बताया गया है।
१. संज्ञापूर्वकविधेरनित्यत्वम् (९३-१), २. आगमशास्त्रमनित्यम् (९३-२) ३. गणकार्यमनित्यम् (९३-३), ४. अनुदात्तेत्त्वलक्षणमात्मनेपदमनित्यम् (९३-४) ५. नञ्चटितमनित्यम् (९३-५), ६. आतिदेशिकमनित्यम् (९३-६) ७. समासान्तविधिरनित्यः (८४)
'न्यायसंग्रह' में भी ऐसे न्याय इस प्रकार है -: १. समासान्तागमसंज्ञाज्ञापककणननिर्दिष्टान्यनित्यानि (१-३५) २. आत्मनेपदमनित्यम् (२-३७) ३. विपि व्यञ्जनकार्यमनित्यम् (२-३८) ४. स्थानिवद्भावपुंद्भावैकशेषद्वन्द्वैकत्वदीर्घत्वान्यनित्यानि (२-३९) ५. अनित्यो णिच्चुरादीनाम् (२-४०) ६. णिलोपोऽप्यनित्यः (२-४१)
यहाँ अनित्यत्व या नित्यत्व की प्रथम व्याख्या में व्याकरण के सूत्रों की अनित्यता-नित्यता बतायी गई है, जबकि दूसरी व्याख्या में ऊपर बताया गया उसी प्रकार से सूत्र निर्दिष्ट कार्यो की नित्यता या अनित्यता बतायी गई है। १३. अनुबन्धों का स्वरूप
सभी व्याकरणशास्त्रों में धातु या शब्दों और उनसे होनेवाले विविध प्रत्ययों मूल प्रत्यय से अतिरिक्त वर्ण या वर्णसमुदाय से युक्त होते हैं । ऐसे प्रत्येक वर्ण या वर्णसमुदाय, जिसे अनुबन्ध कहा जाता है, उससे निर्दिष्ट कार्य व्याकरण के विविध सूत्र से होते हैं।
परमपूज्य तपागच्छाधिपति शासनसम्राट् आचार्य श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर महान् वैयाकरण आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरिजी ने सिद्धहेम व्याकरण में निर्दिष्ट धातु, शब्द व उससे होनेवाले विभिन्न प्रत्ययों के अनुबन्ध तथा उससे निर्दिष्ट विभिन्न कार्य अर्थात् अनुबन्धों का फल बतानेवाली १० कारिका बनायी है और उनके शिष्य मुनिश्री दक्षविजयजी (आचार्य श्रीदक्षसूरिजी) ने उसका गुजराती भाषा में विवेचन किया है साथ एक कोष्टक बनाकर उसमें ३५ अनुबन्धों का फल व दृष्टान्त/उदाहरण भी बताये हैं। 53. Sce: Aforementioned foot note. (Ibidem, pp.10) 54. द्रष्टव्यः श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन-स्वोपज्ञलघुवृत्ति, परिशिष्ट नं-२, पृ. २३ से ३५.
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