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सप्तविंशतितमं पर्व • बिति हिमवानेनां शशांककरनिर्मलाम् । प्रा सिन्धोः प्रसूता कीर्तिमिव स्वां लोकपावनीम् ॥११॥ वनराजीद्वयनेयं विभाति' तटवर्तिना। वाससोरिव युग्मेन विनीलेन कृतश्रिया ॥१२॥ स्वतटाश्रयिणी धत्ते हंसमालां कलस्वनाम् । काञ्चीमिवेयमम्भोजरजःपिञ्जरविग्रहाम् ॥१३॥ नवीसखीरियं स्वच्छ भणालशकलामलाः । सम्बिति स्वसात्कृत्य सख्यं श्लाघ्यं हि तादृशम् ॥१४॥ राजहंसरियं सेव्या लक्ष्मीरिव विभाति ते। तन्वती जगतः प्रीतिमलवयमहिमा परैः ॥१५॥ वनवेदीमियं धत्ते समुत्तुङगां हिरण्मयीम् । प्रज्ञिामिव तवालङ्घयां नभोमार्गविलअघिनीम् ॥१६॥ इतः प्रसीद देवेमां शरल्लक्ष्मी विलोकय । बनराजिषु संरूढां सरित्सु सरसीषु च ॥१७॥ इमे सप्तच्छदाः पौष्पं विकिरन्ति रजोऽभितः। पटवासमिवामोदसंवासितहरिन्मुखम् ॥१८॥ बाणः कुसमबाणस्य बाणरिव विकासिभिः । ह्रियते कामिनां चेतो रम्यं हारिन कस्य वा ॥१९॥ विकसन्ति सरोजानि सरस्सु सममुत्पलैः । विकासिलोचनानीव वदनानि शरच्छियः ॥२०॥ पडाकजेषु विलीयन्ते भमरा गन्धलोलुपाः । कामिनीमुखपद्मेषु कामुका इव काहलाः ॥२१॥
मनोजशरपुडाखाब्ज : पक्षमधुकरा इमे । विचरन्त्यब्जिनीषण्डे मकरन्दरसोत्सुकाः ॥२२॥ से अर्थात् हिमवान् पर्वतके ऊपरसें पृथिवीपर पड़ी है इसलिये इसे आकाशगङ्गा भी कहते हैं ॥१०॥ जो चन्द्रमाकी किरणों के समान निर्मल है, समुद्रतक फैली हुई है और लोकको पवित्र करनेवाली है ऐसी इस गङ्गाको यह हिमवान् अपनी कीर्तिके समान, धारण करता है ॥११॥ यह गङ्गा अपने तटवर्ती दोनों ओरके वनोंसे ऐसी सुशोभित हो रही है मानो इसने नीले रंगके दो वस्त्र ही धारण कर रक्खे हों ॥१२।। कमलोंके परागसे जिनका शरीर पीला पीला हो गया है और जो मनोहर शब्द कर रही हैं ऐसी हंसोंकी पंक्तियोंको यह नदी इस प्रकार धारण करती है मानो मन्द-मन्द शब्द करती हुई सुवर्णमय करधनी ही धारण किये हो ॥१३॥ यह नदी स्वच्छ मृणालके टुकडोंके समान निर्मल अन्य सखी स्वरूप सहायक नदियोंको अपने में मिलाकर धारण करती है सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे पुरुषोंकी मित्रता ही प्रशंसनीय कहलाती है ।।१४॥ अनेक राजहंस (पक्षमें बड़े बड़े राजा) जिसकी सेवा करते हैं, जो संसारको प्रेम उत्पन्न करनेवाली है, और जिसकी महिमा भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी यह गङ्गा आपकी राजलक्ष्मीके समान सुशोभित हो रही है ॥१५॥ जो अत्यन्त ऊंची है, सोनेकी बनी हुई है, आकाश-मार्गको उल्लंघन करने वाली है और आपकी आज्ञाके समान जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी वनवेदिकाको यह गङ्गा नदी धारण कर रही है ॥१६॥ हे देव, प्रसन्न होइए और इधर वनपंक्तियों, नदियों और तालाबोंमें स्थान जमाये हुई शरद् ऋतु की इस शोभाको निहारिये ॥१७॥ ये सप्तपर्ण जातिके वृक्ष अपनी सुगन्धिसे समस्त दिशाओं को सुगन्धित करनेवाले सुगन्धिचूर्णके समान फूलोंकी परागको चारों ओर बिखेर रहे हैं ॥१८॥ इधर कामदेवके बाणोंके समान फूले हुए बाण जातिके वृक्षों द्वारा कामी मनुष्योंका चित्त अपहृत किया जा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि रमणीय वस्तु क्या अपहृत नहीं करती ? अथवा किसे मनोहर नहीं जान पड़ती ? ॥१९॥ इधर तालाबोंमें नील कमलोंके साथ साथ साधारण कमल भी विकसित हो रहे हैं और जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो जिनमें नेत्र विकसित हो रहे हैं ऐसे शरद्ऋतुरूपी लक्ष्मीके मुख ही हों ॥२०॥ इधर ये कुछ कुछ अव्यक्त शब्द करते हुए सुगन्ध के लोभी भूमर कमलोंमें उस प्रकार निलीन हो रहे हैं जिस प्रकार कि चाटुकारी करते हुए कामी जन स्त्रियोंके मुखरूपी कमलोंमें निलीन-आसक्त-होते हैं ॥२१॥ जो मकरन्द रसका पान
१ बिभर्ति ल०।२ धृतथिया ल०, द०, इ० । ३ स्वच्छमृणाल-ल०।४ तादृशाम् ल०।५ पक्ष राजश्रेष्ठः । ६ प्रसिद्धाम् । ७ झिण्टिभिः । ८ अपहृतम् । ९ आश्लिष्यन्ति । निलीयन्ते ल०। १० अस्फुटवचनाः ।
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