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सप्तविंशतितमं पर्व
अथ व्यापारयामास दशं तत्र' विशाम्पतिः। प्रसन्नः सलिलैः पाद्यं वितरन्त्यामिवात्मनः ॥१॥ व्यापारितदशं तत्र प्रभुमालोक्य सारथिः। प्राप्तावसरमित्यूचे वचश्चेतोऽनुरञ्जनम् ॥२॥ इयमालादिताशेषभुवना देवनिम्नगा। रजो विधुन्वती भाति भारतीव स्वयम्भुवः ॥३॥ पुनातीयं हिमाद्रिं च सागरं च महानदी । प्रसूतौ च प्रवेशे च गम्भीरा निर्मलाशया ॥४॥ इमां वनगजाः प्राप्य निर्वान्त्येते मदश्च्युतः । मुनीन्द्रा इव सद्विद्या गम्भीरां तापविच्छिदम् ॥५॥ इतः पिबन्ति वन्येभाः पयोऽस्याः कृतनिःस्वनाः । इतोऽमी पूरयन्त्येनां मुक्तासाराः शरद्धनाः ॥६॥ अस्याः प्रवाहमम्भोधिः धत्ते गाम्भीर्ययोगतः। असोढं विजयान तुङगेनाप्यचलात्मना ॥७॥ अस्याः पयःप्रवाहेण नूनमधिवितृड् भवेत्। क्षारेण पयसा स्वेन दह्यमानान्तराशयः ॥८॥ पद्म हवाद्धिमवतः प्रसन्नादिव मानसात् । प्रसूता पप्रथे पृथ्ख्यां शुद्धजन्मा हि पूज्यते । ६॥ व्योमापगामिमां प्राहुवियत्तः पतितां क्षितौ । गङगादेवीगृहं विष्वगाप्लाव्य स्वजलप्लवैः ॥१०॥
अथानन्तर वहांपर जो स्वच्छ जलसे अपने लिये (भरतके लिये) पादोदक प्रदान करती हुई सी जान पड़ती थी ऐसी गङ्गा नदीपर महाराज भरतने अपनी दृष्टि डाली ॥१॥ उस समय साथिन महाराज भरतका गङ्गापर दष्टि डाल हए देखकर चित्तको प्रसन्न करनेवाल निम्नलिखित समयानुकूल वचन कहे ॥२॥ हे महाराज ! यह गङ्गा नदी ठीक ऋषभदेव भगवान्की वाणीके समान जान पड़ती है, क्योंकि जिस प्रकार ऋषभदेव भगवान्की वाणी समस्त संसारको आनन्दित करती है उसी प्रकार यह गङ्गा नदी भी समस्त लोकको आनन्दित करती है और ऋषभदेव भगवान्की वाणी जिस प्रकार रज अर्थात् पापोंको नष्ट करनेवाली है उसी प्रकार यह गङ्गा नदी भी रज अर्थात् धूलिको नष्ट कर रही है ॥३॥ गंभीर तथा निर्मल जलसे भरी हुई यह गङ्गा नदी उत्पत्तिके समय तो हिमवान् पर्वतको पवित्र करती है
और प्रवेश करते समय समुद्रको पवित्र करती है ॥४॥ जिस प्रकार गंभीर और सन्तापको नष्ट करनेवाली सद्विद्या (सम्यग्ज्ञान) को पाकर बडे बडे मनि लोग मद अर्थात अहंकार छोड कर मुक्त हो जाते हैं उसी प्रकार ये जंगली हाथी भी इस गंभीर तथा संतापको नष्ट करनेवाली गङ्गा नदीको पाकर मद अर्थात गण्डस्थलसे झरनेवाले तोय विशेषको छोड़कर शान्त हो जाते हैं ॥५॥ इधर ये वनके हाथी शब्द करते हुए इसका पानी पी रहे हैं और इधर जलकी वृष्टि करते हए ये शरदऋतूके मेघ इसे भर रहे हैं ॥६॥ अत्यन्त ऊंचा और सदा निश्चल रहनेवाला विजयाध पर्वत भी जिसे धारण नहीं कर सका है ऐसे इसके प्रवाहको गम्भीर होनेसे समुद्र सदा धारण करता रहता है ।।७।। संभव है कि अपने खारे जलसे जिसका अन्तःकरण निरन्तर जलता रहता है ऐसा समुद्र इस गङ्गा नदीके जलके प्रवाहसे अवश्य ही प्यासरहित हो जायेगा ॥८॥ यह गङ्गा प्रसन्न मनके समान निर्मल हिमवान् पर्वतके पद्म नामक सरोबरसे निकलकर पृथिवीपर प्रसिद्ध हुई है सो ठीक ही है क्योंकि जिसका जन्म शुद्ध होता है वह पूज्य होता ही है ॥९॥ यह गङ्गा अपने जलके प्रवाहसे गङ्गादेवीके घरको चारों ओरसे भिगोकर आकाश
१ गंगायाम् । २ उत्पत्तिस्थाने। ३ सुखिनो भवन्ति मुक्ताश्च । ४ मदच्यतः ल० । ५ परमागमरूपाम् । ६ सोढुमशक्यम् । दत्तुमशक्यमित्यर्थः । ७ वियतः ल०, इ०, द० ।
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