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कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता २७
पाप-कर्म बन्ध से कैसे बचे कैसे प्रवृत्ति करे ? इसके अतिरिक्त मानव-जीवन की प्रत्येक शारीरिक, वाचिक, मानसिक, बौद्धिक, ऐन्द्रियक एवं व्यावहारिक प्रवृत्ति में पद-पद पर जो साधक बन्ध से नहीं बच पाता, उसके लिए दशवैकालिक सूत्र में चेतावनी देते हुए कहा गया है
"जो साधक अयतना (असावधानी, अविवेक, अजागरूकता) से चलता, बैठता, खाता-पीता, सोता, बोलता, सोचता, उठता तथा अन्य विविध चेष्टाएँ, कायिक, वाचिक, मानसिक प्रवृत्तियाँ तथा चर्याएँ करता है, वह पापकर्म का बन्ध करता है, जिसका कटुफल उसे भोगना पड़ता है।"
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में कहा गया है- "जो व्यक्ति शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इन पांचों इन्द्रियों के वश होकर इनके विषयों में रत, आसक्त, गृद्ध, मूर्च्छित, अहंत्व-ममत्व युक्त बन जाते हैं, बनते हैं, वे घोर पापकर्म का बन्ध करते हैं, जो परम दुःख का कारण है।" - "विषय-सुखों में गृद्ध बने हुए जीव पापमय कार्य करते हुए उन पापकर्मों के वशीभूत होकर अनेक दुःखों वाली संसाररूपी अटवी में भटकते हैं, संसार-अरण्य में वे जन्म-मरणादि महादु:ख पाते हैं।"२
- ऋणानुबन्ध : परम्परबन्ध को समझना भी आवश्यक . इसके अतिरिक्त व्यक्ति जब से इस अवनि पर आँखें खोलता है, तब से वह
सर्वप्रथम परिवार से जुड़ता है, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, दादा-दादी तथा पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि के विविध रिश्तों से वह जुड़ता है। उसके पश्चात् ग्राम, नगर, प्रान्त, धर्मसंघ, जाति, कौम, समाज और राष्ट्र तथा परराष्ट्रों से उसका वास्ता पड़ता है, उनसे वह एक या दूसरे रूप से जुड़ता है। परस्पर सहयोग के आदान-प्रदान के लिए जुड़ना आवश्यक होता है। इतना ही नहीं, अपने पितरों, देवी-देवों तथा पशु-पक्षियों आदि से भी उसका सम्बन्ध जुड़ता है।
१. 'अजयं चरमाणो य"चिट्ठमाणो य"आसमाणो य, "सममाणो य"भंजमाणो य" "भासमाणो यपाणभूयाई हिंसई ॥ बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ, कडुयं फलं ॥"
-दशवैकालिक-अ.४, गा. १ से ६. २.-(क) अह संदाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेव विसयरया ।
पावंति कम्मबंधं परमासुह-कारणं घोरं ॥४॥ (ख) तह जीवो विसयसुहे लुद्धो, काऊण पाव किरियाओ । ___ कम्म-बंधणं पावइ, भवाटवीए महादुक्खं ॥२॥ -ज्ञाताधर्मकथा अ. १७, १८.
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