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. मूल जं खंडियंजं विराहियंतस्स निच्छा मि दुक्कडं-
( तृतीय भाग
अर्थ जो खडन हुआ हो जो विराधना हुई हो उस दुष्कृत का फल मिथ्या है
मे आने वाली वस्तुओं व
मर्यादा बाधना (८) अनर्थदण्डविरमणव्रत-जिन वृथा कार्यों से आत
को दडित होना पडता है
उनका त्याग करना (९) सामायिकवत-आत्मा को समभाव मे रखने का वर (१०) देशावकाशिकव्रत-भूमि और द्रव्यो की मर्या
करने का व्रत (११) प्रनिपूर्ण पोपधव्रत-एक रात-दिन तक उपवा
करके आत्मा मे रमण करने का ६ (१२) अतिथिसंविभागवत- जिनके आने की निश्चि
तिथि नहीं है, ऐसे अपरिग्रः पुरुपो को अपने आहार आ
में से हिम्सा देने का व्रत । सूचना:- यह 'इच्छामि ठाइ' का पाठ बोलने के वा । तस्स उत्तरी ' का पाठ वोलप र निन्यानवे अतिचारो व 'काउस्मग्ग' करना चाहिए ।