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जैन लक्षणावली
'पाउग्गगमण मरण' ऐसा पाठ है। तदनुसार 'प्रायोग्य' शब्द से संसार का अन्त करने योग्य संहनन और संस्थान को ग्रहण किया गया है तथा 'गमन' का अर्थ प्राप्ति है, इस प्रकार के संहनन और संस्थान की प्राप्ति के आश्रय से जो मरण होता है वह प्रायोग्य मरण कहलाता है। यह भी उसकी सार्थक संज्ञा है। मूलाराधनादर्पण में इतना विशेष कहा गया है कि इसे 'प्रायोगमन' भी कहा जाता है। तदनुसार वहां 'प्राय' शब्द से संन्यास युक्त अनशन को ग्रहण किया गया है। प्रकृत मरण चूंकि संन्यास युक्त अनशन की प्राप्ति होने पर सिद्ध किया जाता है, इसीलिए उसे 'प्रायोगमन' कहा गया है। यह नाम भी उसका सार्थक है।
पुलाक-तत्त्वार्थसूत्र (दि. ६-४६, श्वे. ह-४८) में जिन पांच निर्ग्रन्थों का निर्देश किया गया है उनमें पुलाक प्रथम हैं । उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए स. सि. और त. वा. (६, ४६, १) आदि में कहा गया है कि जिन निर्ग्रन्थ मनियों का मन उत्तरगणों की भावनाओं से दूर रहता है तथा जो कहीं व कभी व्रतों की परिपूर्णता से भी रहित होते हैं उन्हें पुलाक निर्ग्रन्थ कहा जाता है । पुलाक नाम तुच्छ धान्य का है । ये निर्ग्रन्थ चूंकि शुद्धि से रहित होते हुए उस तुच्छ धान्य के समान होते हैं, इसीलिए उनका उल्लेख 'पुलाक' नाम से किया गया है। त. भाष्य (६-४८) में पुलाक उन निर्ग्रन्थों को कहा गया है जो जिनप्रणीत आगम से निरन्तर विचलित नहीं होते । इसी भाष्य में आगे (६-४६) प्रतिसेवना के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि जो दूसरे के अभियोग (माक्षेप या कहने) से अथवा दवाब से पांच मूलगुणों और छठे रात्रिभोजनव्रत इनमें से किसी एक का सेवन करता है उसे पुलाक कहते हैं। यहां मतान्तर को प्रगट करते हुए यह भी कहा गया है कि किन्हीं प्राचार्यों के अभिमतानुसार पुलाक नाम उसका है जो मैथन का प्रतिसेवन करता है । इस भाष्य की सिद्ध . वृत्ति (६-४६) में भाष्योक्त इस लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'सम्यग्दर्शनपूर्वक होने वाले ज्ञान और चारित्र मोक्ष के हेतु हैं इस प्रकार के प्रागम से जो कभी भ्रष्ट न होकर-उसपर दढ रहते हुए -----ज्ञान के अनुसार क्रिया का अनष्ठान करते हैं, साथ ही जो तप और श्रुत के आश्रय से उत्पन्न हुई लब्धि (ऋद्धि) को उपजीवित रखते हुए उसमें अनुरक्त रहकर-सकल संयम (महाव्रत) के गलने से अपने आपको तन्दुल कणों से शून्य धान्य के समान निःसार करते हैं उन्हें पुलाक कहा जाता है। कारण यह कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये सारभूत हैं, उनके विनाश से ही उक्त पुलाक निर्ग्रन्थों को निःसार कहा गया है। लगभग यही अभिप्राय प्रवचनसारोद्धार को वत्ति (७२३) में भी प्रगट किया गया है।
प्रवचनवत्सलत्व-सर्वार्थसिद्धि (६-२४) और तत्त्वार्थवातिक (६, २४, १३) आदि में इसके लक्षण में यह कहा गया है कि जिस प्रकार गाय अपने बछड़े से स्नेह करती है उसी प्रकार से साधर्मी जन के साथ जो स्नेह किया जाता है उसका नाम प्रवचनवत्सलत्व है। त. भा. (६-२३) में उसके स्वरूप को दिखलाते हए कहा गया है कि जो जिनशासन में विहित अनष्ठान के करने वाले व श्रत के पारंगत हैं उनका तथा बाल, वृद्ध, तपस्वी, शैक्ष और ग्लान आदिकों का संग्रह, उपग्रह और अनुग्रह करना; यह प्रवचनवत्सलत्व का लक्षण है । स. सि. की अपेक्षा इस भाष्य में 'सधर्मा' को उक्त प्रकार से स्पष्ट किया गया है। धवला (पु.८, प. १०) व चारित्रसार (पृ. ३६) में समान रूप से कहा गया है कि प्रवचन तथा देशवती, महाव्रती और सम्यग्दष्टि इनके विषय में जो अनुराग, आकांक्षा एवं ममेदभाव होता है उसका नाम प्रवचनवत्सलता है।
बकुश-पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ मुनियों में बकुश दूसरे हैं। सवार्थसिद्धि में उनके लक्षण का निर्देश करते हए कहा गया है कि जो निर्ग्रन्थता के प्रति स्थित प्रस्थित] हैं --उसपर प्रारूढ़ हैं-व अखण्डित (निरतिचार)व्रतों का पालन करते हैं,पर जो शरीर और उपकरणों (पीछी. व कमण्डलु) की विभूषा की अपेक्षा रखते हैं तथा जिनका परिवार से मोह नहीं छूटा है। ऐसे मोह की विचित्रता से युक्त निर्ग्रन्थ बकुश कहलाते हैं। 'बकुश' शब्द का अर्थ विचित्र है। उनका यह लक्षण कुछ विशेषता के साथ तत्त्वार्थभाष्य (8-४८) और तत्त्वार्थवार्तिक (६.४६, २) इन दोनों में प्रायः शब्दशः समान पाया जाता है। वहां कहा गया है की जो निर्ग्रन्थता के प्रति प्रस्थित हैं—प्रस्थान कर चुके हैं (उसपर आरूढ़ है), शरीर और उपकरणों की विभूषा (संस्कार या स्वच्छता) की अपेक्षा करते हैं, ऋद्धि व यश के अभिलाषी हैं, सात गौरव के आश्रित हैं, परिवार
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