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जैन लक्षणावली
दशवकालिक वृत्ति आदि में मतिभ्रम या चित्तविप्लुतिको प्रथम विकल्प के रूप में निर्दिष्ट किया गया है और विद्वज्जुगुप्सा या साधुजुगुप्सा को द्वितीय विकल्प के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है प्रा. अमितगति और भट्टारक शुभचन्द्र (कार्ति. टीकाकार) ने भी निविचिकित्सा के प्रसंग में साधूजुगप्सा का निषेध किया है। हरिभद्र सूरि ने तो विचिकित्साविषयक इन दोनों अभिप्रायों की पुष्टि में पृथक्-पृथक् दो कथानक भी दिये हैं (श्रा. प्र. टीका ६३) ।
परिभोग-श्रावक के १२ व्रतों में एक भोगोपभोगपरिमाण या उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत भी है। तत्त्वार्थसूत्र (दि. ७-२१, श्वे. ७-१६) में इस व्रतका उल्लेख जहां उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत के नाम से किया गया है (श्वे. त. सू में 'उपभोग-परिभोगव्रत' के नाम से ही उसका निदेश किया गया है) वहां रत्नकरण्डक (८२) में उसका निर्देश भोगोपभोगपरिमाण व्रत के नाम से किया गया है। तदनुसार भोग, उपभोग व परिभोग के लक्षण में भी भेद रहा है। यथा-त.सू. की व्याख्या स्वरूप सर्वार्थसिद्धि में प्रशन, पान, और गन्ध-माल्यादि को उपभोग तथा आच्छादन, प्रावरण, अलंकार, शयन, प्रासन, गृह और वाहन आदि को परिभोग कहा गया है। त. भाष्य में भी लगभग इसी अभिप्राय को प्रकट करते हए अशन, पान खाद्य, स्वाद्य और गन्धमाल्य आदि के साथ आच्छादन, प्रावरण, अलंकार, शयन, आसन, गृह, यान और वाहन पादि में जो बहुत सावध से युक्त हैं उनके परित्याग को उपभोग-परिभोगव्रत कहा गया है। इसके साथ वहां यह सूचना की गई है कि उनमें जो अल्प सावद्य से युक्त हैं उनका परिमाण करना भी इस व्रत में अभिप्रेत है। यहां 'गन्धमाल्यादि' तथा 'वाहनादि' में जो 'च' शब्द के साथ पृथक् पृथक् षष्ठी बहुवचन का निर्देश किया गया है उससे यही प्रतीत होता है कि भाष्यकार को प्रशन-पान आदि भोगरूप से और आच्छादन-प्रावरण आदि परिभोग रूप से अभिप्रेत हैं। यहां स. सि. से यह विशेषता रही है कि स. सि. में उपभोग के लक्षण में जिन खाद्य व स्वाद्य शब्दों का निर्देश नहीं किया गया है वे यहाँ उसके अन्तर्गत उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार परिभोग के लक्षण में यहां स. सि. की अपेक्षा 'गृह' और 'वाहन' के मध्य में 'यान' शब्द अधिक पाया जाता है।
त. वा. (७, २१, ८) में 'उपेत्य भुज्यते इत्युपभोगः' इस निरुक्ति के साथ जिन प्रशन-पानादि को
करके भोगा जाता है उन्हें उपभोग तथा 'परित्यज्य भुज्यते इति परिभोगः' इस निरुक्ति के साथ जिन आच्छादन-प्रावरण आदि को एक बार भोगकर पुनः भोगा जाता है उन्हें परिभोग कहा गया है। श्रावकप्रज्ञप्ति (२८४) की टीका में भी उक्त दोनों शब्दों की इसी प्रकार से निरुक्ति करते हए लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त किया गया है। त. वा. से यहां इतनी विशेषता है कि विकल्प रूप में यहां 'उप' शब्द को अन्तर्वचन मानकर तदनुसार विषय और विषयी में अभेदोपचार से अन्तर्भोगको उपभोग और परि' शब्द को बहिर्वाचक मानकर तदनुसार बहिर्भोगको परिभोग कहा गया है। इसके पूर्व इसी श्रा. प्र. (२६) टीका में भोगान्तराय और उपभोगान्तराय के प्रसंग में एक बार भोगे जाने वाले आहार आदि को भोग और पुनः पूनः भोगे जाने वाले भवन-वलय आदि को उपभोग कहा गया है। अपने इस अभिप्राय की पूष्टि में वहां "सइभुज्जइत्ति भोगो" आदि एक गाथा भी उद्धृत की गई है। इस प्रकार एक ही ग्रन्थ में यह अभिप्राय भेद देखा जाता है।
रत्नकरण्डक (८२-८३) आदि में जहां इस व्रत को भोगोपभोगपरिमाण व्रत के नाम से निर्दिष्ट किया गया है वहां एक ही बार भोगे जाने वाले आहार आदि को भोग और पुनः पुनः भोगे जानेवाले वस्त्रादि को उपभोग कहा गया है। इस प्रकार से यदि कहीं (स. सि. आदि) एक ही बार भोगे जाने वाले भोजन आदि को उपभोग और पुनः-पुनः भोगे जाने वाले आच्छादन व प्रावरण आदि को परिभोग के अन्तर्गत किया है तो अन्यत्र (रत्नक. प्रादि में) उन्हें क्रम से भोग और उपभोग के अन्तर्गत किया गया है।
प्रकत उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत के प्रसंग में श्वे. सम्प्रदाय के श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों मेंजैसे उवासगदसायो (५१) और श्रावकप्रज्ञप्ति (२८५ व २८७-८८) आदि में--एक यह विशेषता देखी जाती है कि वहां इस व्रत के भोजन व कर्म की अपेक्षा दो भेद निदिष्ट किये गये हैं। उनमें कर्म की अपेक्षा
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