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प्रस्तावना
१६
इस व्रत में अंगार, वन, शकट, भाटक, स्फोटन तथा दांत, लाख, रस, केश और विष विषयक व्यापार; यंत्रपीडन, निछन, दवदान, तालाब-हद-तडाग का शोषण और सतीपोष इन पन्द्रह सावद्य कर्मों को निषिद्ध प्रगट किया गया है ।
दि. सम्प्रदाय के श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों में इनका उल्लेख किया गया नहीं दिखता। हां, पं. आशाधर विरचित सागारधर्मामृत (५, २१-२३) में इनका निर्देश तो किया गया है, पर वह पूर्वोक्त मान्यता के निराकरण के रूप में किया गया है। पं. आशाधर का कहना है कि ऐसे सावद्य कर्म निषिद्ध तो हैं, पर जब वे अगणित हैं तब वैसी अवस्था में पूर्वोक्त पन्द्रह कर्मो का ही परित्याग कराना उचित प्रतीत नहीं होता । अथवा, अतिशय मन्दमतियों को लक्ष्य करके यदि उनका परित्याग कराया जाता है तो वह अनुचित भी नहीं है। यहां यह स्मरणीय है कि श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में हरिभद्र सूरि ने भी इसी प्रकार के अभिप्राय को प्रगट करते हुए यह कहा है कि इन बहुसावद्य कर्मों का यहां प्रदर्शन मात्र किया गया है, क्योंकि इनके अतिरिक्त अन्य भी कितने ही ऐसे सावद्य कर्म हो सकते हैं जिनकी गणना नहीं की जा सकती है । अतएव उनकी यहां गणना की गई नहीं समझना चाहिये ।
इसी प्रकार प्रकृत व्रत के प्रतिचारों के विषय में भी मतभेद देखा जाता है । यथा -- त. सू. (दि. ७३५ और श्वे. ७-३०) में उक्त व्रत के ये पांच प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं- सचित्ताहार, सचित्तसंबद्धाहार, सचित्तमिश्राहार, अभिषवाहार और दुष्पक्वाहार । किन्तु रत्नकरण्डक (६०) में विषयरूप विष की उपेक्षा न करना, विषयों का पुनः पुनः स्मरण करना, उनके सेवन में अतिशय लोलुपता, उनके सेवन की अतिशय आकांक्षा और अतिशय आसक्ति के साथ उनका उपभोग ; ये पांच प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं । श्रा. प्र. (२८६ ) में उसके जो प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं उनमें तीन प्रतिचार तो त. सू. के समान हैं, पर दो में कुछ उससे भिन्नता है । यथा -- सचित्ताहार, सचित्तप्रतिबद्धाहार, अपक्वभक्षण, दुष्पक्वभक्षण और तुच्छ औषधिभक्षण । पं. आशाधर ने अपने सा. ध. (५-२० ) में त. सू. के समान उसके प्रतिचारों का निर्देश करके स्वो टीका में 'अत्नाह स्वामी' ऐसा कहते हुए रत्नक में निर्दिष्ट पूर्वोक्त प्रतिचारों का भी निर्देश कर दिया है व उनकी व्याख्या भी की है । यहीं पर उन्होंने 'तद्वच्चेमेऽपि श्रीसोमदेव विबुधाभिमताः' ऐसी सूचना करके प्रकृतव्रतातिचारविषयक उपासकाध्ययन के श्लोक ( ७६३) को भी उद्धृत कर दिया है । तदनुसार वे प्रतिचार ये हैं- दुष्पक्वभक्षण, निषिद्धभक्षण, जन्तुसम्बद्धभक्षण, जन्तुसम्मिश्रभक्षण और वीक्षितभक्षण | इस प्रकार उक्त व्रत के जो भी प्रतिचार निर्दिष्ट किये गये हैं वे सब भोजन से ही सम्बद्ध हैं, कर्म से सम्बन्धित प्रतिचारों का कहीं कोई निर्देश नहीं किया गया । यह व्रत बहुत व्यापक है । यही कारण है जो रत्नक. (८४-८९) में त्रसघात के परिहार के लिये इस व्रत में मद्य-मांस आदि कितने ही अन्य विषयों का भी नियम कराया गया है ।
पादपोपगमन - श्रागम में त्यक्त शरीर के प्रायोपगमन, इंगिनीमरण और भक्तप्रत्याख्यान ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । प्राकृत में प्रायोपगमन के वाचक पात्रोवगमण, पानोवगमन और पाउग्गगमण ये शब्द उपलब्ध होते हैं । इनके संस्कृत रूप भी अनेक हुए हैं । जैसे - पादपोपगमन, पादोपगमन, प्रायोगमन, प्रायोग्यगमन और प्रायोपगमन | शब्दभेद होने से कुछ अर्थभेद भी हुआ है, पर अभिप्राय प्रायः सबका समान ही रहा है । यथा-
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पण्डित मरण के प्रसंग में भगवती आराधना ( २०६८-६६ ) में कहा गया है कि क्षपक (आराधक ) शरीर से निर्ममत्व होकर उसे जहां जिस प्रकार से रखता है जीवन पर्यन्त वह उसे स्वयं नहीं चलाता हैहलन चलन क्रिया से रहित उसी प्रकार से उसे स्थिर रखता है । इस प्रकार निष्प्रतिकर्म - स्व- परप्रतीकार से रहित - मरण को प्रायोपगमन मरण कहा जाता है । इसी भ. प्रा. की विजयोदया और मूलाराधनादर्पण टीकाओं ( २ ) में इसके स्वरूप को दिखलाते हुए कहा गया है कि संघ को छोड़कर अपने पावों से अन्यत्र चले जाने पर आराधक का जो अपनी व अन्य की वैयावृत्ति से रहित मरण होता है उसे पादोपगमन मरण कहते हैं । यह उसकी सार्थक संज्ञा है । प्रकारान्तर से वहां यह भी संकेत किया गया है - अथवा
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