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जैन लक्षणावली
तत्त्वार्थसूत्र (दि. ९-४६, श्वे. ६-४८ ) में इन पांच निर्ग्रन्थों का निर्देश किया गया है - पुलाक बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनमें निर्ग्रन्थों के स्वरूप को दिखलाते हुए उसकी व्याख्या स्वरूप सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक व त. श्लोकवार्तिक तथा हरिवंशपुराण (६४-६३ ) श्रादि में कहा गया है कि जिनके कर्मों का उदय पानी में लकड़ी से खींची गई रेखा के समान अव्यक्त है तथा जिनके अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रगट होने वाला है वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । त. भाष्य भी लगभग इसी प्रकार के अभिप्राय को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि जो वीतराग होकर छद्मस्थ हैं, अर्थात् दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म से रहित हो जाने पर भी जिनके अभी केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रगट नहीं हुआ है, तथा जो पथ को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ कहा जाता है । यहां 'ई' का अर्थ योग और 'पथ' का अर्थ संयम करके उसका यह अभिप्राय सूचित किया गया है कि वे योग व संयम को प्राप्त हो चुके हैं । आराधनासार (३३) के अनुसार शरीर बाह्य ग्रन्थ और इन्द्रियविषयों की अभिलाषा अभ्यन्तर ग्रन्थ है, इन दोनों का परित्याग हो जाने पर क्षपक परमार्थ से निर्ग्रन्थ होता | तत्त्वसार (१०) के अनुसार जिसने मन, वचन व काय से बाह्य और श्रभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ दिया है तथा जिनलिंग का आश्रय ले लिया है उस श्रमण को निर्ग्रन्थ कहा जाता है ।
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आवश्यक सूत्र की हरिभद्रविरचित वृत्ति (प्र. ४, १. ७६० ) और दशवेकालिक नि. की भी हरिभद्रविरचित वृत्ति ( १५८) में भी कहा गया है कि जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित हो चुके हैं वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । लगभग यही अभिप्राय त भाष्य की सिद्धसेन विरचित वृत्ति (६-४८ ) में भी व्यक्त किया गया है | वहां ग्रन्थ शब्द से भाठ प्रकार के कर्म के साथ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और दुष्प्रणिधान युक्त योग को ग्रहण किया गया है । यहीं पर आगे (९-४६) उपशान्तमोह और क्षीणमोह संयतों को निर्ग्रन्थ कहा गया है। प्रवचनसारोद्धार (७३१) में निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीव इन पांच को श्रमण कहा गया है। इनमें निर्ग्रन्थ मुनि उन्हें कहा गया है जो जिनशासन में ही सम्भव हैं ।
निर्विचिकित्स -- निर्विचिकित्सता और निर्विचिकित्सा ये दोनों शब्द भी प्रकृत निर्विचिकित्स के समानार्थक हैं । सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में तीसरा अंग निर्विचिकित्सा हैं । इसकी प्रतिपक्षभूत विचिकित्सा यह उस सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला उसका एक प्रतिचार है । समयप्राभृत (२४९) में निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो सभी धर्मों में – सब ही वस्तु स्वभावों के विषय में - घृणा नहीं करता है । इस कारण उसके जुगुप्सा के श्राश्रय से होने वाला कर्मबन्ध नहीं होता । रत्नकरण्डक (१३) में निर्विचिकित्सा अंग के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि शरीर यद्यपि स्वभावतः अपवित्र है, फिर भी उसे (मनुष्य शरीर को ) रत्नत्रय की प्राप्ति का कारण होने से पवित्र भी माना गया है । अतएव उससे घृणा न करके गुणों के प्राश्रय से जो प्रीति हुआ करती है, इसका नाम निर्विचिकित्सा अंग है, जो सम्यग्दर्शन का पोषक है । तत्त्वार्थवार्तिक (६, २४, १) और चरित्रासार (पृ. ३) में इस अंग के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि शरीर आदि के अशुचि स्वभाव को जानकर 'वह शुचि है' इस प्रकार के मिथ्या संकल्प को दूर करना, इसका नाम निर्विचिकित्सता है । अथवा, जिनागम में यदि यह घोर कष्ट देने वाला विधान न होता तो सब संगत था, इस प्रकार का विचार न आने देना, इसे निर्विचिकित्सता का लक्षण जानना चाहिये । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (२५) में प्रकृत निर्विचिकित्सता के विपरीत विचिकित्सा का निषेध करते हुए कहा गया है कि क्षुधा, तृषा, शीत और उष्ण आदि जो अनेक प्रकार के भाव हैं उनमें तथा विष्टा आदि द्रव्यों के विषय में घृणा नहीं करना चाहिये । इसका अभिप्राय यही हुआ कि क्षुधा तृषादि के होने पर संक्लेश को प्राप्त न होना तथा मल-मूत्रादि घृणित समझे जाने वाले पदार्थों से घृणा न करना, यह उक्त निर्विचिकित्सता का लक्षण है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा (४१७) व अमितगतिश्रावकाचार ( ३-७५) में दस प्रकार के धर्म के धारक तपस्वियों के स्वभावतः दुर्गन्धित व अपवित्र शरीर को देखकर उनके प्रति घृणा न करना, इसे निर्विचिकित्सा गुण — सम्यग्दर्शन का अंग - कहा गया है ।
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