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प्रस्तावना
१५
हैं। धवलाकार ने साधारण जीवों का लक्षण एक शरीर में निवास करने वाले निर्दिष्ट किया है (पू.१४, प्र. २२७) । एक ही शरीर में अवस्थित ये साधारण बादर व सूक्ष्म निगोदजीव एकमेक के साथ परस्पर में बद्ध और स्पृष्ट होते हैं। उदाहरण यहां मूली व थूहर प्रादि का दिया गया है। इन निगोद जीवों में ऐसे भी अनन्त (नित्यनिगोद) जीव हैं जिन्होंने संक्लेश की प्रचुरता के कारण कभी त्रस पर्याय को नहीं प्राप्त किया है (षट्खं. ५, ६, १२६.२७-पु. १४, पृ. २२६-३४ द्रष्टव्य हैं)।
जीवाजीवाभिगम की मलयगिरि विरचित वृत्ति (५, २, २३८, पृ. ४६३) में जीवों के प्राश्रयविशेषों को निगोद कहा गया है।
गो. जीवकाण्ड की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका (१६१) और कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका (१३१) में समानरूप से 'नियतां गां भमि क्षेत्र निवासं अनन्तानन्तजीवानां ददातीति निगोदम्' इस प्रकार की निरुक्ति के साथ यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि जो अनन्तानन्त जीवों को नियमित निवास देता है उसका नाम निगोद है।
ये निगोदजीव दो प्रकार के माने गये हैं-नित्यनिगोदजीव और अनित्यनिगोदजीव । तत्त्वार्थवार्तिक २, ३२, २७) में योनिभेदों की प्ररूपणा के प्रसंग में इन दो प्रकार के निगोदजीवों के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो जीव तीनों ही कालों में त्रस पर्याय प्राप्त करने के योग्य नहीं हैं उन्हें नित्य निगोत और जो त्रस पर्याय को प्राप्त कर च के हैं तथा आगे भी उसे प्राप्त करने वाले हैं उन्हें अनित्यनिगोत कहा जाता है। यहां 'निगोत' शब्द का उपयोग 'निगोद' के समानार्थक रूप में हमा है। इसे प्राकृत 'णिगोद' का संस्कृत में रूपान्तर हुआ समझना चाहिये। इस निगोत शब्द का उपयोग अनगारधर्मामृत की स्वो. टीका (४.२२) में उद्धत एक श्लोक में भी हुआ है।
धवला (पु. १४, पृ. २३६) में 'अनित्यनिगोत' के स्थान में 'चतुर्गतिनिगोद' शब्द का उपयोग हुना है। वहां इनके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि चतुर्गतिनिगोद जीव वे हैं जो देव, नारक, तियंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन: निगोदों में प्रविष्ट होकर रहते हैं तथा जो जीव सदा निगोदों में ही रहते हैं उन्हें नित्यनिगोदजीव जानना चाहिए। यही अभिप्राय अनगारधर्मामृत की स्वो. टीका (४-२२) में भी प्रगट किया गया है।
पूर्वोक्त षट्खण्डागम के जिस गाथासूत्र (५, ६, १२७) के अनुसार ऐसे अनन्त जीवों का उल्लेख किया गया है जिन्होंने कभी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं किया, उस गाथासूत्र को गो. जीवकाण्ड में (१९१) उसी रूप में आत्मसात् किया गया है। उसकी जी. प्र. टीका में यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि प्रकृत गाथा में उपयुक्त 'प्रचुर' शब्द एकदेशाभाव से विशिष्ट समस्त अर्थ का वाचक है। अतः उसके आश्रय से यह सूचित किया गया है कि पाठ समय अधिक छह मासों के भीतर चतुर्गतिरूप जीवराशि से निकल कर छह सौ आठ जीवों के मुक्त हो जाने पर उतने (६०८) ही जीव नित्यनिगोदभव को छोड़कर चतुर्गतिभव को प्राप्त होते हैं । उपर्युक्त आठ समय अधिक छह मासों में छह सौ पाठ जीवों के मुक्त (क्षपकश्रेणिप्रायोग्य) होने का उल्लेख धवला (पु. ३, पृ. ६२-६३) में भी किया गया है ।
निर्ग्रन्थ-नाग्न्यपरीषहजय के प्रसंग में निर्ग्रन्थता अपेक्षित है, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। प्रकृत में निर्ग्रन्थ की विशेषता को प्रगट करते हुए सूत्रकृतांग (१, १६, ४) में कहा गया है कि जो एक है, एकवित्-एक प्रात्मा को ही जानता है, प्रबुद्ध है, कर्मागम के स्रोतों (प्रास्रवों) को नष्ट कर चुका है, अतिशय संयत है, समितियों का दृढ़ता से पालन करता है, सुसामायिक-शत्रु-मित्रादि के विषय में समभाव रखता है, अात्मवाद को प्राप्त है, विज्ञ है, द्रव्य व भावरूप दोनों स्रोतों को नष्ट कर चुका है, पूजा-सत्कार की अपेक्षा नहीं करता है, धर्मार्थी है, धर्म का वेत्ता है और नियागप्रतिपन्न है-मोक्षमार्ग को प्राप्त है; उसे निर्ग्रन्थ कहा जाता है। ऐसा निर्ग्रन्थ इन्द्रियों व कषायों का दमन करके शरीर से नि:स्पृह होता हुआ समित-समतास्वरूप प्राचरण करता है। इस प्रकार यहां बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह से रहित साधू को सामान्य से प्रशंसा की गई है ।
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