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॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ् ।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : २० :
चौथमलजी श्री चौथमलजी महाराज बन गए। साधना के अमर पथ पर चल पड़े। उनका जीवन त्याग-पथ की ओर मुड़ गया । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-पांच महाव्रतों का पालन करने लगे। आठ प्रवचनमाताओं को जीवन में साकार करने लगे। अब वे 'षट्काय के पीयर' बन गए। नवदीक्षित मुनि चौथमलजी महाराज गुरुदेव के साथ पंच पहाड़ पधारे । केसरबाई भी वहीं पहुँच गई। छोटी दीक्षा के ७ दिन बाद फाल्गुन शुक्ला १२ को बड़ी दीक्षा समारोहपूर्वक धूम धाम से सम्पन्न हई। संकल्प के धनी का संकल्प पूरा हुआ। जो उसने विचार किया वह पूरा कर दिखाया। माता केसरबाई ने भी अपने पुत्र की दीक्षा में पूरी-पूरी सहायता की।
संवत् १९५० से १९५२ के दो वर्षों तक चौथमलजी महाराज की दीक्षा में विघ्न आते रहे । उनके वैराग्य की धारा को संसार की ओर मोड़ने का अथक प्रयास किया गया। हवालात में रखा गया, जान से मारने की धमकी दी गई लेकिन उनका वैराग्य इतना कच्चा नहीं था जो इन धमकियों से दब जाता । ठाणांग सूत्र में संसार विरक्ति के निम्न कारण बताए हैं
(१) स्वेच्छा से ली हुई प्रव्रज्या (२) रोष से ली गई प्रव्रज्या (३) दरिद्रता से ऊबकर ली गई प्रव्रज्या (४) स्वप्नदर्शन द्वारा ली गई प्रव्रज्या (५) प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर ली गई प्रव्रज्या (६) जाति स्मरण ज्ञान से पूर्व जन्मान्तर का स्मरण होने से ली गई प्रव्रज्या (७) रोग के कारण ली गई प्रव्रज्या (८) देवों द्वारा प्रतिबुद्ध किये जाने पर ली गई प्रव्रज्या (8) अपमानित होने पर ली गई प्रव्रज्या (१०) पुत्र-स्नेह के कारण ली गई प्रव्रज्या अन्यन्त्र दीक्षा के मंसार-प्रसिद्ध निम्न कारण माने गये हैं
(१) दुःखगभित वैराग्य-अशभ कर्मों के कारण दुःखों से घबराकर जो संसार से विरनि, होती है, वह दुःखगर्भित वैराग्य कहलाता है।
(२) श्मशानजन्य वैराग्य-यह वैराग्य श्मशान में किसी शव की अन्येष्टि होते हुए देखने से होता है।
ये दोनों ही वैराग्य श्लाघनीय नहीं है । ये स्थायी भी नहीं रहते । चौथमलजी महाराज का वैराग्य इनमें से किसी भी कोटि का नहीं था। उनका वैराग्य आत्मा से प्रस्फुटित हआ था। इसको आगम की भाषा में (३) ज्ञानभित वैराग्य कहा जाता है। यह स्थायी भी होता है। इसीलिए दो वर्ष तक निरन्तर विघ्न-बाधाएँ सहते रहने पर भी चौथमलजी महाराज की वैराग्य ज्योति बूझी नहीं वरन और भी अधिक प्रदीप्त होती रही। दीक्षा ग्रहण करने के बाद तो उनके वैराग्य में दिनोंदिन चमक आती गई। वे दिवाकर बनकर चमके और जन-जन के हृदय को आलोकित किया।
चौथमलजी की दीक्षा के दो महीने बाद केसरबाई ने भी महासती श्री फूंदीजी आर्याजी महाराज से दीक्षा अंगीकार कर ली। वे साध्वी बन गई । वीरमाता और वीरपुत्र दोनों ही साधना द्वारा अपना आत्मकल्याण करने लगे।
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