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अर्द्धमागधी आगम-साहित्य में अस्तिकाय
1. लोक में नानाविध ऋतुभेद प्राप्त होता है, उसके पीछे कोई कारण होना चाहिए और वह काल है । 21
2. आम्र आदि वृक्ष अन्य समस्त कारणों के उपस्थित होने पर भी फल से वंचित रहते हैं । वे नानाशक्ति से समन्वित कालद्रव्य की अपेक्षा रखते हैं । 22
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3. वर्तमान, अतीत एवं भविष्य का नामकरण भी काल द्रव्य के बिना संभव नहीं हो सकता तथा काल के बिना पदार्थों को पृथक्-पृथक् नहीं जाना जा
सकता 123
4. क्षिप्र, चिर, युगपद्, मास, वर्ष, युग आदि शब्द भी काल की सिद्धि करते हैं । 24 5. काल को षष्ठ द्रव्य के रूप में आगम में भी निरूपित किया गया है, यथा- कइ णं भंते! दव्वा ? गोयमा ! छ दव्वा पण्णत्ता, तंजहा धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए
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इस प्रकार आगम और युक्तियों से काल पृथक् द्रव्य के रूप में सिद्ध है । वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व काल के उपकार हैं। द्रव्य का होना ही वर्तना, उसका विभिन्न पर्यायों में परिणमन परिणाम, देशान्तर प्राप्ति आदि क्रिया, ज्येष्ठ होना परत्व तथा कनिष्ठ होना अपरत्व है । काल को परमार्थ और व्यवहार काल के रूप में दो प्रकार का प्रतिपादित किया जाता है ।
जैन प्रतिपादन का वैशिष्ट्य
पंचास्तिकायात्मक या षड्द्रव्यात्मक जगत् का प्रतिपादन जैन आगम-वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन है । जीव एवं पुद्गल अथवा जड़ एवं चेतन का अनुभव तो हमें होता ही है, किन्तु इनमें गति एवं स्थिति भी देखी जाती है । गति एवं स्थिति में सहायक उदासीन निमित्त के रूप में क्रमशः धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति और उसका जीव एवं पुद्गल के कारण लोकव्यापित्व स्वीकार करना संगत ही प्रतीत होता है। इन सबके आश्रय हेतु आकाशास्तिकाय का प्रतिपादन अपरिहार्य था । आकाश को लोक तक सीमित न मानकर उसे अलोक में भी स्वीकार किया गया है, क्योंकि लोक के बाहर रिक्त स्थान आकाशस्वरूप ही हो सकता है। पंचास्तिकाय के साथ पर्याप्त परिणमन के हेतु रूप में काल को मान्यता देना भी