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दशवकालिक
त्रिविध-त्रिविध मनोवचन तन से न करता उम्र-भर।
नहीं करवाता व · अनुमोदन न करता आर्यवर ॥६७।। पूर्वकृत का प्रतिक्रमण निन्दा व गीं कर रहा।' '
आत्म का व्युत्सर्ग कर भगवन् ! संतत अघ हर रहा ॥६॥ साधु-साध्वी गण सुसंयत विरत प्रतिहत-अघ सदा। ''
और प्रत्याख्यात-पापाचरण रहता सर्वदा ॥६६।। दिवस मे, निशि में, अकेला और परिषद् मे कदा।
- नीद में सोया हुआ या जागता रहता यदा ॥७०॥ उदक, प्रोस व हिम, कुहासा करक हरतनु नीर को। ।
- शुद्ध पानी को तथा जल-स्निग्ध वस्त्र, शरीर को ॥७१॥ स्वल्प भीगे को नहीं फिर स्पर्श न्यूनाधिक करे।
- और प्रापीडन-प्रपीडन से निरन्तर हो परे ॥७२॥ नहीं झाड़े ...औ. सुखाए . एकधा बहुधा . यमी।
नही करवाये न अनुमोदे किसी को भी शमी ॥७३॥ त्रिविध-त्रिविध मनोवचन तन से न करता उम्र-भर ।
नहीं करवाता व अनुमोदन न करता आर्यवर ॥७४।। पूर्वकृत का. प्रतिक्रमण निन्दा- व गर्दा, कर, रहा।
आत्म का व्युत्सर्ग कर भगवन् ! सतत अघ हर रहा ॥७॥ साधु-साध्वी गण सुसयत विरत प्रतिहत-अघ सदा।
और प्रत्याख्यात-पापाचरण रहता सर्वदा ॥७६।। दिवस मे, निशि मे, 'अकेला और परिषद मे कदा।' 1. नीद मे सोया हुआ या जागता रहता यदा ॥७७॥ अग्नि या अगार चिनगारी' शिखा ' ज्वाला विपुल । "
काष्ठ-पावक शुद्ध पावक और उल्कादिक अतुल ॥७॥ नही उत्सेचन तथा घट्टन क्रिया मुनिवर करे।
__ और उज्ज्वालन व विध्यापन क्रिया से हो परे ॥७९॥ , और ये सब अन्य जन से भी न कराये कभी ।
तथा अनुमोदनं तजे यह कह रहे गुणिजन सभी ॥२०॥