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तेरहवाँ अध्ययन चित्तसंभूत
जाति पराजित होकर निश्चित निदान कर हस्तिनानगर मे । पद्म-गुल्म पद्म- गुल्म से च्यव कर उपजा, ब्रह्मदत्त चूलनी उदर मे ॥ १ ॥
कपिलपुर मे जन्मा है सभूत व पुरिमंताल मे चित्र । विशाल श्रेष्ठी सुकुल मे, फिर सुन धर्म हुआ, प्रव्रजित पवित्र ॥२॥ कंपिलपुर मे हुए इकट्ठे चित्त तथा संभूत उभय जन ।
सुख-दुख कर्म विपाक परस्पर कहने लगे वहाँ निर्भय बन || ३ || महा ऋद्धि घर महा यशस्वी ब्रह्मदत्त चक्री नर देव ।
अति सम्मान पुरस्सर निज भाई से यो बोला स्वयमेव ||४|| हम दोनो भाई अन्योन्य वशानुग अनन्य प्रेमी थे ।
सुखपूर्वक रहते थे तथा परस्पर बड़े हितैषी थे ॥५॥ हम दशार्ण मे दास हुए फिर कालिंजर गिरि पर मृग बाल ।
मृत गंगा तट पर हम हंस हुए फिर काशी मे चाण्डाल ॥६॥ फिर हम दोनो देवलोक मे हुए महर्द्धिक देव सुभग हैं ।
एक दूसरे से यह छट्ठा जन्म हमारा हुआ अलग है ||७|| विषयो का चिन्तन कर राजन् । तुमने किया निदान - प्रयोग |
उस कर्मोदय विपाक से यह हम दोनो का हुआ वियोग ॥८॥ पूर्व जन्म मे सत्य शौचमय कर्म किए जिनका फल सद्य ।
भोग रहा मैं, चित्त । तुम्ही क्या भोग रहे वैसा फल अद्य ? ॥६॥ सभी सुचीर्ण सफल होता विन भोगे जीव न होता मुक्त ।
उत्तम अर्थ- काम द्वारा मैं, पुण्य फलो से था सयुक्त ॥ १० ॥ महानुभाग महद्धिक पुण्यवान् सभूत । समझता निज को ।
वैसा ही तू महाविपुल द्युति ऋद्धिमान पहचान चित्र को ॥११॥ महा अर्थ अल्पाक्षर वाली गाथा जन-समूह मे सुनकर । मुनि अर्जित करते है यत्न से, जिसे श्रवण कर वना श्रमणवर ॥ १२॥