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उत्तराध्ययन
अप्रशस्त है चूहों का रहना विडाल-वस्ती के पास ।
स्त्री-प्रालय के निकट ब्रह्मचारी का त्यो अक्षम्य निवास ॥१३॥ स्त्री-लावण्य, रूप, आलाप, विलास, हास्य, इंगित, प्रेक्षण ।
इन्हे चित्त मे रमा, देखने का संकल्प न करे श्रमण ॥१४॥ स्त्री-अवलोकन, प्रार्थन, चिन्तन, कीर्तन नहिं करना ही हितकर।
धर्म-ध्यान के योग्य, ब्रह्मवत-रत मुनि का यह पथ श्रेयस्कर ।।१५।। जिन त्रिगुप्त मुनियो को सज्जित सुर-वधुएं न चलित कर सकती।
फिर भी परम प्रशस्त व हितकर उनके लिए विजन मे वसती।।१६।। मोक्षाकाक्षी, धर्मस्थित, ससार-भीरु नर के जीवन मे। . अज्ञ-मनोहारी नारी - दुस्तर कोई वस्तु न जग में ॥१७॥ इन सगो को तरने पर सव शेष सग है सुतर यथा। ___ महा. सिन्धु तरने पर गगा नदी तैरना सुगम तथा ।।१८।। देव सहित सब जग में कायिक व मानसिक दुख है अत्यन्त । , वह सब कामजन्य है, वीतराग पा जाता उसका अन्त ॥१६॥ खाते समय वर्ण रस से ज्यो फल- किंपाक मनोरम होते। : जीवनान्त करते परिणति में; कामभोग भी ऐसे होते ॥२०॥ मनोज्ञ या अमनोज्ञ इन्द्रियो के विषयों मे राग व रोष।। : न करे समाधि-इच्छुक श्रमण तपस्वी सतत रहे निर्दोष ॥२१॥ रूप अांख का विषय कहांता, राग हेतु जो प्रिय बन जाता।
द्वेष हेतु अप्रिय वनता, समता से वीतराग कहलाता ।।२२।। चक्षु रूप का ग्राहक है फिर रूप चक्षु का ग्राह्य कहाता। __राग हेतु वह प्रिय हो जाता, द्वेष हेतु अप्रिय बन जाता।।२३॥ ज्यो आलोक-लोल रागातुर शलभ मृत्यु को है अपनाता।। त्यो प्रिय रूप-तीव्र लोलुप नर आकाल ही मे विनाश पाता ॥२४॥ तीव्र द्वेष करता अप्रिय मे, दुःख उसी क्षणं वह पाता नित। -
निज दुर्दान्त दोष से दुखी, न इसमे दोष रूप का किंचित् ॥२५॥ प्रिय सुरूप मे प्रवल रक्त, अप्रिय मे करता द्वेषं स्वतः। - -
वह अज्ञानी दुख पाता, होता न विरत मुनि लिप्त अतः ॥२६॥