Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 206
________________ १८८ उत्तराध्ययन पक्व कपित्थ व पक्व प्राम-रस जैसा खट-मीठा होता । इससे अधिक अनन्त गुना, तेजो लेश्या का रस होता ॥१३॥ प्रवर सुरा फिर विविध पासवो या मधु मैरेयक रस होता। उससे जान अनन्त गुनाधिक अम्ल, पद्म लेश्या-रस होता ॥१४॥ खजूर, दाख, क्षीर, शक्कर या खांड मधुर रस जैसा होता । उससे अधिक अनन्त गुना रस मधुर शुक्ल लेश्या का होता ||१५|| मृतक गाय, फिर मृतक श्वान या मृतक सर्प मे जैसी गंध । अप्रशस्त लेश्याओ में उससे भी अनन्त गुना दुर्गंध ॥१६॥ सुरभित सुम या पिण्यमाण केशरी-कस्तूरी से भी बढकर । गंध अनन्त गुना है तीनो प्रशस्त लेश्याओ की सुखकर ॥१७॥ करवत, गो-जिह्वा फिर शाकपत्र का जैसा होता स्पर्श । उससे अधिक अनन्त गुना अप्रगस्त लेश्याओ का स्पर्श ॥१८॥ बूर तथा नवनीत सरीप-कुसुम का मृदु होता ज्यो स्पर्ग । प्रशस्त लेश्यात्रय का उससे भी अनन्त गुण मृदु है स्पर्श ।१६॥ तीन तथा नौ, सप्त बीस, इक्यासी दो सौ तेतालीस । इतने है लेश्याओ के परिणाम यहाँ कहते जगदीश ॥२०॥ पंचाश्रवी, त्रिगुप्ति-अगुप्त व छह कायो मे अविरत है। तीवारभ-रक्त जो क्षुद्र, साहसिक, नित्य पापरत है ॥२१॥ इह-परलौकिक शकारहित, नगस और अजितेन्द्रिय होता। जो इन सब से युक्त, कृष्ण लेश्या मे वह परिणत है होता ॥२२॥ ईर्ष्यालु, कदाग्रही व मायी, अतपस्वी, शठ, लज्जाहीन । गृद्ध, अज्ञ, द्वेपी, प्रमत्त, रसलोल, सुखैषी, पाप-प्रवीण ॥२३॥ फिर आरम्भ-अनुपरत, क्षुद्र व अविचारित जो करता कृत्य। .. इन सबसे वह युक्त, नील लेश्या मे परिणत होता नित्य ॥२४॥ वचन-वक्र, फिर वक्राचारी, कपटी जो कि सरलता-हीन । ___ अपने दोष छुपाता, मिथ्यादृष्टि, अनार्य, छद्म मे लीन ॥२५॥ दर्वचनी, हँसोड, चोर, मत्सरी मनुज जो होता है । - इन सबसे युत, वह कपोत लेश्या मे परिणत होता है ॥२६॥

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