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अ० ३६ : जीवाजीव-विभक्ति सुख-रस और समृद्धि हेतु जो मंत्र, योग या भूति-कर्म का।
जो प्रयोग करता है वह सेवन करता अभियोग भाव का ॥२६४॥ ज्ञान, केवली, धर्माचार्य-सघ फिर मुनियो की जो करता।
निन्दा,वह मायावी फिर किल्बिषी भावना को आचरता ॥२६५।। सतत क्रोध को जो कि बढ़ावा देता, निमित्त कहता है ।
इन्ही कारणो से प्रासुरी भावना में वह बहता है ।।२६६॥ शस्त्र-ग्रहण कर, विष-भक्षण कर, जल कर, जल मे गिर कर मरता। अधिक उपकरण जो रखता वह जन्म-मरण का पोषण करता ॥२६७।। भव्य जीव-सम्मत छत्तीस उत्तराध्ययनों का यो स्फुटतर ।
प्रादुष्करण किया परिनिर्वृत बुद्ध ज्ञात-वंशज ने सुन्दर ॥२६॥