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उत्तराध्ययन
तत. बहत वर्षों तक संयम का पालन कर महामुनी।
फिर इस ऋमिक प्रयत्न प्रवर से निज आत्मा को कसे गुणी॥२५०।। है उत्कृष्टतयां बारह वर्षों की सलेखना सुजान ।' _ मध्यमत है एक वर्ष की जघन्यतः छह मास- प्रमाण ॥२५१।। पहले चार वत्सरो मे सब विकृति-विवर्जन श्रमण करें। ___ अपर चार वर्षों मे फिर नानाविध तप-आचरण करे ।।२५२।। फिर दो वर्षों तक आचाम्ल सहित एकान्तर सतत करे।
फिर छह मासाऽवधि तकनही विशिष्ट तपस्या ग्रहणाकरेगा२५३।। फिर छह मार्स विकृष्ट तपस्या करे. यहाँ पर महामुनी।
इस पूरे संवत्सरी मे परिमित आचाम्ल करे. सुगुणी ॥२५४॥ अन्तिम हायन मे फिर मुनिवर कोटि सहित आचाम्ल करे।
तत पक्ष या एक मास तक भोजन का परिहार करे ॥२५॥ कांदपी व आभियोगी, मोहो व आसुरी, है किल्बिषिकी।
ये सब दुर्गति है, विराधना करती मरण समय दर्शन की ॥२५६।। मिथ्यादर्शन रक्त और सनिदान तथा हिंसक होकर।
जो मरते हैं जीव यहाँ उनको फिर बोधि महा दुष्कर ॥२५७॥ सम्यग्दर्शन-रत, अनिदान शुक्ल लेश्या में प्रवर्नमान ।
जो मरते जीव उन्हे फिर सम्यग्दर्शन सुलभ सुजान ॥२५८॥ मिथ्यादर्शन-रत सनिदान कृष्ण लेश्या मे प्रवर्तमान ।
जो मरते है जीव उन्हे फिर बोधि महा दुर्लभ पहचान ॥२५॥ जिन वचनो मे रक्त व उनमे करते रमण भाव पूर्वक नर।
असक्लिष्ट, निर्मल, परीत-संसारी हो जाते साधक वर ॥२६०॥ जो जिन वचनों को न जानते वे बेचारे फिर बहु बार ।. . ___करते यहाँ रहेगे, बाल-मरण व अकामन्मरण हर बार ॥२६१।। समाधि-उत्पादक, बहु-आगम-विज्ञ, गुणग्राही होते हैं। .
इन्ही गुणो से आलोचना-श्रवण अधिकारी वे होते हैं ॥२६२।। कंदर्पक कौत्कुच्य व शील-स्वभाव-हास्य-विकथानों से फिर ।
पर को विस्मित करता वह कदर्प भाव को आचरता नर ॥२६३।।