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उत्तराध्ययन दो प्रकार का नाम कर्म है, शुभ व अशुभ जग मे प्रख्यात ।
शुभ के बहुत भेद, त्यो अशुभ नाम के बहुत भेद आख्यात ॥१३॥ गोत्र कर्म भी दो प्रकार है, उच्च नीच सज्ञा से जान ।
इन दोनों के आठ-आठ होते हैं भेद, समझ मतिमान ॥१४॥ दान लाभ फिर भोग तथा उपभोग वीर्य सज्ञा पहचान ।।
अन्तराय यों पॉच प्रकार कहा संक्षिप्ततया धीमान ॥१५॥ मूल तथा उत्तर की ये सब कर्म-प्रकृतियाँ कही प्रखर ।
प्रदेशाग्र फिर क्षेत्र काल से और भाव से सुन उत्तर ॥१६॥ सव कर्मों के प्रदेशान हैं एक समय से ग्राह्य अनन्त ।
ग्रन्थिक सत्वातीत व सिद्धो के अनन्तवे भाग, दुरन्त ॥१७॥ छहो दिशाओं से सब जीव कर्म-पुद्गल संग्रह करते है।
सभी कर्म-पुद्गल सब प्रात्म-प्रदेश-बद्ध होकर रहते हैं ॥१८॥ कोटि-कोटि है तीस सागरोपम उत्कृष्टतया स्थिति जान । __इन चारो कर्मो की जघन्य स्थिति है अन्तर्मुहूर्त मान ॥१९॥ ज्ञानावरण व वेदनीय दर्शनावरण की स्थिति पहचान ।
अन्तराय की भी उपरोक्त कही है स्थिति समझो मेतिमान ॥२०॥ सत्तर कोटि-कोटि सागर की है उत्कृष्टतया स्थिति जान । ___मोहनीय को जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की है मतिमान | ॥२१॥ है तेतीस मागरोपम की स्थिति उत्कृष्टतया पहचान ।
आयु कर्म की जघन्यतः स्थिति है फिर अन्तर्मुहूर्त मान ।।२२।। विशति कोटि-कोटि सागर की है उत्कृष्टतया स्थिति जान ।
नाम गोत्र की जघन्यत. स्थिति आठ मुहूर्त काल-परिमाण ॥२३॥ सर्व कर्मानुभाग हैं, सिद्धों के अनन्तवे भाग समान ।
सव जीवो से भी ज्यादा, सब अनुभागो का प्रदेश मान ॥२४॥ अत. वुद्ध जन इन कर्मों के अनुभागो को जान मुदा ।
इन्हे निरोध तथा क्षय करने-हित मुनि उद्यम करे सदा ॥२५॥