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उत्तराध्ययन
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भाव-गृद्ध को कहो कदाचित् किचित् भो क्या सुख हो पाता ? प्राप्ति काल मे दुख, फिर भोग समय, अतृप्ति का दुख हो जाता ॥६७॥ अप्रिय भाव द्वेष-रत भी दुख- परपरा को है अपनाता ।
दुष्ट चित्त से कर्म बाँध, परिणाम काल मे वह दुख पाता ॥६८॥ भाव-विरत नर अशोक बन दुख- परपरा से लिप्त न बनता । जल मे ज्यो कमलिनी पत्र त्यो अलिप्त बन कर जग मे रहता ॥ ६६॥ इन्द्रिय, मन के विषय, सरागी नर के दुख हेतु होते हैं ।
वीतराग के लिए न किंचित् भी वे दुखदायी होते हैं ॥ १०० ॥ समता और विकारो के ये हेतु न होते काम व भोग ।
उन मे राग, द्वेष, मोह से सविकारी बनते है लोग ॥ १०१ ॥ क्रोध मान फिर कपट लोभ व जुगुप्सा अरति तथा रतिजान । हास्य, शोक, भय, पु, स्त्री, क्लीव वेद विविध भाव पहचान ॥ १०२ ॥ यों अनेक विध इन भावो को कामासक्त प्राप्त होता है ।
फिर वह प्राणी करुणास्पद, लज्जित व दीन अप्रिय होता है ॥ १०३ ॥ योग्य शिष्य, तप फल को भी चाहे न लिप्सु मुनि हो अनुतप्त ।
इन्द्रिय- चोरो के वश, अमित विकारो से होता सतप्त ॥ १०४ ॥ मोह - जलधि में तत डुबोने वाले कारण पैदा होते ।
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उनको पाने, दुख हरने - हित, मनुज सुखैषी उद्यत होते ॥ १०५ ॥ शब्दादिक प्रिय अप्रिय इन्द्रियजन्य विषय जो हैं वे सब ही ।
विरत मनुज के मन मे राग-द्वेष न पैदा करते कब ही ॥ १०६ ॥ यो सकल्प-विकल्पो से समता पैदा हो जाती स्पष्ट ।
विषयों मे समभावो से फिर काम-लालसा होती नष्ट ॥ १०७॥ वीतराग, कृतकृत्य वही फिर हो जाता क्षण-भर मे जान ।
ज्ञान दर्शनावरण व ग्रन्तराय को क्षय करता मतिमान ॥ १०८ ॥ तत अमोह गतान्तराय सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता । शुद्ध, अनाश्रव, ध्यान, समाधियुक्त आयु क्षय कर शिव पाता ॥ १०६॥ जिनसे जीव सतत पीडित उन सब दुखों से होता विरहित
दीर्घामय से मुक्त, प्रशस्त, कृतार्थ, ग्रतीव सुखी होता नित ॥ ११० ॥ यह अनादिकालीन दुख सव मोक्षणार्थ पथ कहा प्रवर । कर स्वीकार इसे क्रमश. अत्यन्त सुखी हो जाते नर ॥ १११ ॥