Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 216
________________ जमी को पार विश्व में से फिर जस में तीन प्रतिव ॥४॥ १६८ उत्तराव्ययन ऊर्ध्व लोक मे चार, सिन्धु मे दो फिर जल मे तीन प्रसिद्ध । अध. वीस, तिरछे मे अष्टोत्तर शत, एक समय मे सिद्ध ॥५४॥ सिद्ध कहाँ रुकते हैं, कहाँ प्रतिष्ठित होते सिद्ध महान ? कहाँ छोडते तन को, होते जाकर कहाँ सिद्ध भगवान ।।५।। अलोक मे रुकते हैं सिद्ध और लोकान भाग में स्थित है। ____ यहाँ देह को छोड वहाँ जाकर के होते सिद्ध प्रथित हैं ।।५६।। है सर्वार्थसिद्ध से बारह योजन ऊपर छत्राकार । पृथ्वी ईपत्-प्राग्भारा सजा से विश्रुत है ससार ॥५७।। लम्बी-चौड़ी है वह पैतालीस लाख योजन परिमाण । उससे तिगुनी परिधि सिद्ध शिला की कही गई मतिमान ॥५८॥ मध्य भाग मे गिला पाठ योजन की मोटी, फिर वह क्रम से। हीय मान मक्षिका-पख से भी पतली अन्तिम-अचल से ।।५।। श्वेत सुवर्णमयी स्वभाव से वह निर्मल पृथ्वी पहचान । फिर उत्तान छत्रकाऽऽकारवती जिनवर ने कही महान ॥६०॥ शंख, अकमणि, कुन्द कुसुम सम, श्वेत शुद्ध वह अति निर्मल । उस सीता पृथ्वी से योजन ऊपर है लोकान्त अचल ॥६॥ उस योजन के ऊपर का जो कोस प्रमाण वहाँ आकाश । उसके छठे हिस्से मे सिद्धो की जहाँ अवस्थिति खास ।।६२॥ महाभाग वे सिद्ध वहाँ लोकाग्र-भाग मे सुस्थित हैं। भव-प्रपच से मुक्त, प्रधान सिद्धगति-गत, आत्म-स्थित है ।।६३॥ अन्तिम भव मे जिस मानव की जितनी ऊचाई है होती । उससे एक तिहाई कम, पहचान अवस्थिति उसकी होती ॥६४॥ वे एकत्व अपेक्षा से हैं सादि अनन्त कहे अम्लान । और वहुत अपेक्षा से वे सिद्ध अनादि, अनन्त महान ।।६।। सघन अल्पी और ज्ञान दर्शन में 'सोपयुक्त सतत हैं । अनुपम अतुल सौख्य-सपन्न सिद्ध होते हैं, सही कथित है ॥६६॥ सतत ज्ञान-दर्शन-उपयुक्त व लोक एक देश स्थित हैं। भवसागर निस्तीर्ण, श्रेष्ठ गति को सप्राप्त, सुशोभित हैं ।।६७॥

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