Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 201
________________ म० ३२ प्रमाद स्थान १८३ झूठ बोलते समय व पहले पीछे होता दुखी दुरन्त। . . - त्यो चोरी-रत स्पर्श-अतृप्त अनाश्रित, पाता दुख अत्यन्त ।।८३॥ स्पर्श-गृद्ध को कही कदाचित् किचित् भी क्या सुख मिल पाता? . . प्राप्ति काल मे दुख फिर भोग समय अतृप्ति का दुख हो, जाता ॥४॥ अप्रिय स्पर्ग द्वेप-रत भी दूख-परम्परा को है अपनाता। - दुष्ट चित्त से कर्म बाँध, परिणाम काल मे वह दुख पाता ॥८॥ स्पर्श-विरत नर अशोक बन दुख-परपरा से लिप्त न बनता। जल मे ज्यो कमलिनी पत्र त्यो वन अलिप्त वह जग मे रहता ॥८६॥ मन का विषय भाव कहलाता, राग हेतु वह प्रिय बन जाता। द्वेष हेतु अप्रिय बनता समता से वीतराग कहलाता ॥७॥ मन पदार्थ का ग्राहक है फिर पदार्थ मन का ग्राह्य कहाता। राग हेतु वह प्रिय बनता द्वेष हेतु अप्रिय बन जाता ॥६॥ पथाऽपहृत हथिनी मे काम-गृद्ध रागातुर -गज मर जाता। तीव्र भाव आसक्त मनुज त्यों अकाल मे ही विनाश पाता ।।८६॥ तीव्र द्वेष करता अप्रिय मे दुख उसी क्षण वह पाता नित। ___ निज दुर्दान्त दोष से दुखी, न इसमे भाव-दोष है किंचित् ।।६०॥ रुचिर भाव मे परम रांग, अप्रिय मे करता द्वेष स्वतः । वह अज्ञानी दुख पाता, होता न विरत मुनि लिप्त अत. ।।६१॥ भाव-पिपासानुग गुरु-क्लिष्ट स्वार्थवश अज्ञ विविध त्रस स्थावर। जीवो का वध करता परितापित पीडित भी, उन्हे अधिकतर ॥२॥ भाव-गृद्ध उत्पादन, रक्षण, सनियोग, व्यय, वियोग-लिप्त । . रहता, उसे कहाँ सुख, भोग-समय भी रहता जबकि अतृप्त ॥१३॥ भाव-अतृप्त, पदार्थ ग्रहण मे रहता लिप्त, न होता तुष्ट । .. अतुष्टि दोष दुखी पर द्रव्य चुरा लेता वह लोभाविष्ट ॥१४॥ भाव-ग्रहण मे अतृप्त तृष्णाभिभूत हो वह चोरी करता। लोभ-दोष से झूठ-कपट बढता, फिर दुख से छूट न सकता ॥९॥ झूठ बोलते समय व पहले पीछे होता दुखी दुरन्त । .. त्यो चोरी-रत भाव-अतृप्त अनाश्रित पाता दुख अत्यन्त ॥६६॥

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