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अ० ३५ : अनगार-मार्गगति
१६३ स्वर्ण, लोष्ट्र को समान समझे, क्रय-विक्रय से विरत प्रवर ।
स्वर्ण, रजत को मन से कभी नही चाहे, सच्चा मुनिवर ॥१३॥ क्रय करने से ऋयिक और विक्रय से वणिक् कहा जाता।
क्रय-विक्रय मे वर्तन करने वाला भिक्षु न कहलाता ।।१४।। भिक्षाशील भिक्षु को भिक्षा-वृत्ति उचित, ऋतव्य नही है।
महादोष है क्रय-विक्रय सुखदायक भिक्षा-वृत्ति कही है ।।१५।। सूत्र-अनिन्दित फिर समुदानिक उञ्छएषणा श्रमण करे।
तुष्ट अलाभ-लाभ मे, पिण्डपात की चर्या वहन करे ॥१६॥ अलोल फिर रस-अमृद्ध जिह्वा-दान्त अमछित महामुनि ।
रस के लिए 'न खाए, सयम यापनार्थ खाए सुगुणी ॥१७॥ ऋद्धि, अर्चना, रचना, पूजा, मान, वन्दना या सत्कार ।
इनकी मन से भी न कभी अभिलाषा करे, महा अनगार ॥१८॥ शुक्ल-ध्यान ध्याए, अनिदान अकिंचन रहे सतत मतिमत ।
मुनि व्युत्सृष्ट काय होकर विचरे जग मे जीवन पर्यन्त ॥१६॥ काल-धर्म समुपस्थित होने पर, करके भोजन परिहार ।
मुनि समर्थ, नरदेह छोड़ सब दु.ख-मुक्त होता अनगार ॥२०॥ निर्मम निरहंकार अनाश्रव वीतराग बन जाता है ।
गाश्वत केवलज्ञान प्राप्त कर, परिनिर्वृत हो जाता है ॥२१॥