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अ० ३२ : प्रमाद स्थान
गंध - अतृप्त, सुगंध ग्रहण में रहता गृद्ध न होता तुष्ट । अतुष्टि दोष दुखी पर वस्तु चुराता है वह लोभांविष्ट ।। ५५ ।। गधग्रहण मे प्रतृप्त, तृष्णाऽभिभूत हो वह चोरी करता ।
लोभ दोष से झूठ-कपट बढता, फिर दुख से छूट न सकता ॥ ५६ ॥ झूठ बोलते समय व पहले पीछे होता दुखी दुरन्त ।
त्यो चोरी-रत, गध- अतृप्त, अनाश्रित, पाता दुख अत्यन्त ॥ ५७|| -गृद्ध को कही कदाचित् किचित् भी क्या सुख हो पाता ? प्राप्ति समय दुख फिर परिभोग समय अतृप्ति का दुख हो जाता ॥ ५८ ॥ अप्रिय गध-द्वेष रत भी दुख-परम्परा को है अपनाता ।
दुष्टचित्त से कर्म बांध, परिणाम काल मे वह दुख पाता ॥ ५६ ॥ गध-विरत नर अशोक हो, दुख-परम्परा से लिप्त न बनता । जल मे ज्यों कमलिनी - पत्र, त्यो बन अलिप्त वह जग मे रहता ॥ ६०॥ रस रसना का विषय कहाता, राग हेतु वह प्रिय बन जाता ।
द्वेष हेतु अप्रिय बनता, समता से वीतराग कहलाता ॥ ६१ ॥
रसनारस की ग्राहक है, फिर रस रसना का ग्राह्य कहाता । राग हेतु वह प्रिय कहलाता, द्वेष हेतु अप्रिय बन जाता ।। ६२ ।।
श्रामिष-भोगगृद्ध रागातुर मत्स्य बडिश से
बीधा जाता ।
तीव्र रसो मे गृद्ध मनुज त्यो अकाल मे ही विनाश पाता ॥ ६३ ॥ तीव्र द्वेष करता अप्रिय मे, दुख उसी क्षण वह पाता नित ।
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निज दुर्दान्त दोष से दुखित, इसमे रस का दोष न किंचित् ॥ ६४ ॥ मनोज्ञ रस मे प्रबल रक्त, श्रप्रिय मे करता द्वेष स्वतः ।
वह अज्ञानी दुख पाता, होता न विरत मुनि लिप्त श्रतः ॥ ६५॥ रस- आशानुग, नर गुरु- क्लिष्ट स्वार्थवश अज विविध त्रस स्थावर | जीवो का वध करता परितापित पीडित भी उन्हें अधिकतर ॥६६॥ रसलोलुप उत्पादन, रक्षण, सनियोग, व्यय, वियोग - लिप्त |
रहता उसे कहाँ सुख, भोग समय भी रहता जबकि तृप्त ॥६७॥
रस- अतृप्त नर उसे ग्रहण में रहता लिप्त न होता तुष्ट ।
अतुष्टि दोष दुखी, पर वस्तु चुरा लेता वह लोभाविष्ट ||६८ ||