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अ० ३२ : प्रमाद स्थान
१७६ रूप-पिपासानुग, गुरु-क्लिष्ट, स्वार्थरत, अज्ञ, विविध त्रस स्थावर। ' ‘जीवो का वध करता, परितापित पीड़ित भी उन्हे अधिकतर ॥२७॥ रूप-गद्ध, उत्पादन, रक्षण, सनियोग, व्यय, वियोग-लिप्त। -
रहता उसे कहाँ सुख, भोग समय भी रहता जबकि अतृप्त ॥२८॥ रूप-अतृप्त, सुरूप ग्रहण मे रहता गृद्ध, न होता तुष्ट। । ___ अतुष्टि-दोष दुखी पर द्रव्य चुराता है, वह लोभाविष्ट ॥२६॥ रूप ग्रहण मे अतृप्त तृष्णाऽभिभूत हो, वह चोरी करता। ' लोभ दोष से झूठ-कपट वढता, फिर दुख से छूट न सकता ॥३०॥ झठ वोलते समय व पहले पीछे. होता दुखी दुरन्त ।।
त्यो चोरी-रत रूप-अतृप्त, अनाश्रित, पाता दुख अत्यन्त ॥३१॥ रूप-गृद्ध को कही कदाचित् किंचित् भी क्या सुख हो पाता? प्राप्ति समय दुख, फिर उपभोग समय दुख अतृप्ति का हो जाता ॥३२॥ अप्रिय रूप द्वपरत त्यो दुख-परम्परा को है अपनाता। .
दुष्ट चित्त से कर्म बांध, परिणाम काल मे वह दुख पाता ।।३३।। रूप-विरत नर अशोक हो, दुख-परम्परा से लिप्त न बनता। .
जल मे ज्यो कमलिनी पत्र, त्यो वह अलिप्त बन जग मे रहता ॥३४॥ शब्द श्रोत्र का विषय कहांता, राग हेतु जो प्रिय वन जाता। .. ' द्वेप हेतु अप्रिय होता, समता से वीतराग कहलाता ॥३५।। श्रोत्र शब्द का ग्राहक है फिर शब्द श्रोत्र का ग्राह्य 'कहाता। ' राग हेतु वह प्रिय कहलाता, द्वेष हेतु अप्रिय बन जाता ॥३६॥ शब्द-लुब्ध रागातुर मुग्ध अतृप्त हिरण ज्यों मारा जाता। .'' त्यों ही तीव्र शब्द-लोलुप नर अकाल मे ही विनाश पाता ॥३७॥ तीन द्वेष करता अप्रिय में, दुःख उसी क्षण वह पाता नित।
निज दुर्दान्त दोष से दुखी, न इसमे शब्द दोष है किंचित् ॥३८॥ रुचिर शब्द मे तीन रक्त, अप्रिय मे करता द्वेप स्वत.। । वह अज्ञानी दुख पाता, होता न विरत मुनि लिप्त अत. ॥३६।। रूप पिपासाऽनुग गुरु-क्लिप्ट, स्वार्थरत, अज्ञ विविव बस स्थावर। जीवो का वध करता, परितापित पीड़ित भी, उन्हें अधिकतर ॥४०॥