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उत्तराध्ययन
गाथा पोड़श अध्ययन व असयम स्थानो मे जो सत ।
सदा यत्न करता वह ससृतियो मे न कभी रहता मतिमंत ।।१३।। ब्रह्मचर्य पद, ज्ञाताध्ययन व असमाधि स्थानों मे सत ।
सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता मतिमत ॥१४॥ जो इक्कीस सवल दोषो, वाईस परिषहो मे नित सत।
यत्नशील रहता, वह ससृति मे न कभी रहता गुणवत ।।१५।। सूत्रकृताङ्ग त्रयोविंगति मे रूपाधिक देवो मे संत ।।
सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता गुणवंत ॥१६॥ जो कि पचीस भावनाओं मे दशादि उद्देशो मे संत ।
सदा यत्न करता वह संसृति मे न कभी रहता गुणवत ॥१७॥ जो अनगार-गुणो मे फिर आचार-प्रकल्पों मे जो सत ।
सदा यत्न करता वह संसृति मे न कभी रहता मतिमत ॥१८॥ पापश्रुत-प्रसंगो मे फिर मोह स्थानो मे जो सत।
सदा यत्न करता वह ससृति मे न कभी रहता मतिमत ।।१६।। सिद्ध-गुणो योगो मे तेतीसाशातन-गण मे जो संत ।
सदा यत्न करता वह संसृति मे न कभी रहता मतिमंत ॥२०॥ इन उपरोक्त सभी स्थानो मे सदा यत्न करता जो संत ।
वह पडित झट सव ससार-मुक्त हो जाता है गुणवंत ॥२१॥