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उन्नीसवाँ अध्ययन .
मृगापुत्रीय कानन उद्यानो से शोभित रम्य नगर सुग्रीव विशाल । । ।
राजा था बलभद्र वहां पटरानी मृगावती सुकुमाल ॥१॥ पुत्र वलश्री, मृगापुत्र की सज्ञा से.जो विश्रुत था ।
मात-पिता को प्रिय था वह युवराज दमीश्वर सश्रुत था ॥२॥ सदानन्दप्रद भवनो मे ललनाओं के सह क्रीड़ा करता। -
दोगुन्दुक देवो की नाई प्रमुदित मानस वह नित रहता ॥३॥ मणि-रत्नो से जड़िताङ्गन-प्रासाद-गवाक्षस्थित युवराज ।
पुर के त्रिक चत्वर व चतुष्क पथों को देख रहा नरताज ॥४॥ तत्र स्थित उसने जाते देखा. तप-व्रत-सयमधर को।
शील ऋद्धि सपन्न, गुणाकर, श्रमण, भिक्षु संयंत वर को ॥५॥ मृगा-पुत्र अनिमेष. दृष्टि से उसे देखता है, मैं मानू । . .
ऐसा रूप कहीं पर पहले मैंने देखा है, पहेचानू ॥६॥ अध्यवसाय पवित्र व मुनि-दर्शन होने पर सघन चित्त को। - ।"
ऐसो वृत्ति हुई, फिर याद उसे हो आई पूर्व जन्म की ॥७॥ [देवलोक से च्युत हो मनुज जन्म मे आया है, समनस्क। - ज्ञान हुआ तब पूर्व जन्म की हुई उसे फिर स्मृति सद्यस्क ॥] महा ऋद्धिधर मृगा-पुत्र को जाति स्मृति होने पर ज्ञान ।
पूर्व जन्म व पुराकृत सयम की स्मृति हो पाई अम्लान ८ विषयो की आसक्ति न रही हुआ वह सयंम मे अनुरक्त।
मात-पिता के निकट पहुँच, इस भाँति कहा उसने उस वक्त ॥६॥ महाव्रतो को सुना, नरक तिर्यञ्च योनि मे दुख हैं तात ! -
___ भव-सागर से हूँ 'विरक्त, दीक्षा लूँगा आज्ञा दे मात | ॥१०॥ मात-पिता | भोगो को भोग चुका हूँ ये विषफल सम है।
कटु परिणाम, निरन्तर दुख देने वाले, सुख का भ्रम है ॥११॥